(संगीतकार रवि व गीतकार साहिर लुधियानवी )
हिंदी फिल्म जगत में अपने समय के बेहतरीन जुगलबंदी के साथी रहे गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार रवि का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ मिलता है। इन दोनों के मिलन से बने मधुर और दिल में उतरने वाले गीतों ने ऐसा तहलका मचाया था कि आज भी दिल-ओ-दिमाग में गूंजते हुए सुनाई पड़ते हैं और भुलाये नहीं भूलते। संयोगवश दोनों की जोड़ी बी.आर. चोपड़ा की फिल्मों में बनी हालांकि उसके बाहर भी एक-दो फिल्मों में उनके जौहर देखने को मिले लेकिन सबसे पहले फिल्म ‘गुमराह’ में जो दोनों सरेराह चले तो फिर कभी राह नहीं भूले और सन 1980 में 25 अक्तूबर को जब साहिर साहब इस जहां को अलविदा कह गये तब तक उनके जीने के बेहतरीन अंदाज सिखाने वाला गीत -
‘न मुंह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो
गमों का दौर भी आये तो मुस्कुरा के जियो।’
वाकई लोगों को आत्म स्वाभिमान की प्रेरणा दे चुका था और यह गीत साहिर साहब ने फिल्म ‘हमराज’ के लिये लिखा था जो उस समय की इतनी बुलंद फिल्म साबित हुई कि लोग उसे बार-बार देखने और सुनने के लिये सिनेमा हाWलों में जाते थे। सुनने इसलिये कि इसमें गीत इतने मधुर और कर्णप्रिय थे कि सुनते ही बनते थे -
‘किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा है
परस्तिश की तमन्ना है इबादत का इरादा है।’
और इतना ही नहीं उन्होंने इससे आगे भी लिखा -
‘तुम अगर साथ देने का वादा करो
मैं यूं ही मस्त नगमे सुनाता रहूं,
तुम अगर मेरी नजरों के आगे रहो
मैं हरेक शै से नजरें चुराता रहूं।’
ऐसी ही शानदार धुनें इन दोनों की जोड़ी ने बीआर चोपड़ा साहब की एक और जानदार फिल्म ‘आदमी और इंसान’ के लिए भी रचीं जिसमें कहा गया -
‘दिल करदां औ यारा दिलदारा मेरा दिल करदां।’
इसी गीत में साहिर साहब की जिंदादिली की बानगी देखिये -
‘छलके हमारा लहू कल की बहारों में
मरे चाहें जीये रहें अगली कतारों में।’
क्या हिम्मत और हौसला बढ़ाने वाला गीत है और जवां दिलों को देशभक्ति का ऐसा पाठ पढ़ाने वाला और अपनी मधुर धुन की वजह से दिल में घर कर लेने वाला यह गीत सदा-सदा के लिए अमरता के इतिहास में दर्ज हो गया। इसी फिल्म में उन्होंने जिंदगी के रंग भी बयां किये और एक तंज भी खूब किया -
‘बिना सिफारिश मिले नौकरी बिन रिश्वत हो काम
वतन का क्या होगा अंजाम।’
कह सकते हैं कि शायर को शायद पहले ही अन्ना हजारे का आभास हो गया था और उन्होंने देश में ऐसे माहौल की पहले ही कल्पना कर ली थी जब कोई भी काम बिना रिश्वत लिये और बिना सिफारिश किये सिरे चढ़ता ही न हो। इसके बाद उन्होंने ‘वक्त’ फिल्म में ऐसे ही बेहतरीन नगमे बिखेरे जो आज भी शादी की हर सालगिरह पर - ‘ए मेरी जोहराजबीं’ के रूप में अपनी स्वर्ण जयंती मनाने वाले जोड़े भी गाते दिखाई देते हैं। और कदम-कदम पर वक्त की सत्ता और उसके मिजाज की पहचान कराता हुआ यह सावधान करने वाला नगमा तो सुनाई देता ही रहता है -
‘आदमी को चाहिये वक्त से डर कर रहे
कौन जाने किसी घड़ी वक्त का बदले मिजाज।’
इससे पहले कि हम ‘गुमराह’ की बात करें एक फिल्म और भी इन दोनों की जुगलबंदी से ही हिट हो पाई थी और वह थी ‘आंखें’। ‘उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस की मुल्क की सरहद की निगहेबान हैं आंखें।’
यह वास्तव में इन दोनों के गीत और संगीत का ही कमाल था जो इनकी फिल्मों में समाया हुआ हर गीत असरदार था और पूरलुत्फ होते हुए पूरसोज भी था जैसे
‘अपनांे पे सितम गैरों पे करम
ए जाने वफा ये जुल्म न कर।’
सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि शब्द चाहे उर्दू को हों अथवा रचनावली हिन्दी की हो उनकी मधुरता और लय-ताल रवि के संगीत में ऐसी सजी और जमी कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता था फिर चाहे वह ‘तोरा मन दर्पण कहलाये’ हो अथवा ‘बाबुल की दुआएं’ ले जाने वाला गीत हो।
यही कारण है कि जब 6 मार्च को हमसे संगीतकार रवि भी जुदा हो गये हैं तो आज उन दोनों की बंदिश से बना यह गीत बार-बार याद आ रहा है -
‘ये वादियां ये फिजाएं बुला रही हैं तुम्हें
खामोशियों की सदाएं बुला रही हैं तुम्हें।’
यानि सचमुच समय की खामोशी उन दोनों को ही पुकार रही हो उन्हीं की रचनाओं के मध्याम से और मानो कह रही हों -
‘आजा-आजा रे तुझको मेरा प्यार पुकारे,
जुल्फों का हर पेच बुलाए आंचल का हर तार पुकारे।’
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