Friday, December 25, 2009

Auth Purushh Vaytha -1

प्रसिद्ध साहित्यकार अमर साहनी द्वारा रचित आलेखों का हम यहां क्रमवार प्रकाशन कर रहे हैं, जिनमें नारी वर्ग के प्रति बढ़ते अपराधों के लिए मात्र पुरुष वर्ग को दोषी ठहराया जाता है और पुरुष के स्पष्टीकरण की सुनवाई न तो कानून करता है और न ही समाज उसकी व्यथा और सच्चाई को जानने का प्रयास करता है। इन आलेखों में तसवीर का दूसरा रुख दर्शाया गया है और समाज में बढ़ रहे अपराध और विक्षिप्त वृतियों के मूल कारणों का उजागरीकरण किया गया है। - ब्लाग प्रबंधक


प्रस्तावना
इन दिनों महिलाओं की कथित दुर्दशा को लेकर राजनीति से लेकर साहित्य तक में खूब शोर-शराबा हो रहा है जिसे देखो हर छोटा-बड़ा राजनीतिज्ञ या लेखक महिलाओं की दशा का वर्णन इतने दर्दनाक तरीके से करता नजर आता है कि जिसे देख-सुनकर पत्थर भी आंसू बहाने लगता है। एक फैशन-सा बन गया है नारी की निरीहता और पुरुष की बर्बरता की घिनौनी तसवीर उभरकर सामने आती है जिसे देखकर संवेदनशील पुरुष भी अपने पुरुष होने पर शर्मसारी महसूस करता है। किन्तु क्या हमारे समाज में सच में नारी की यही दयनीय दशा है और पुरुष क्या दरिंदों से भी गया-बीता हो गया है, इसके निष्पक्ष और ईमानदाराना सर्वेक्षण की अत्यंत जरूरत है, नहीं तो आने वाले समय में पुरुष और नारी में इतना द्राव बढ़ जाएगा कि संभवत: सृष्टि के भविष्य पर ही प्रश्नचिंह लग जाए। नारी और पुरुष में दिन-प्रतिदिन बढ़ता दुराव और पनपती आपसी घृणा इसी प्रकार के प्रचार का परिणाम नजर आती है। इन हालात में बुद्धिजीवी वर्ग का यह अनिवार्य कर्तव्य बनता है कि बिना सस्ती शोहरत के लालच के ईमानदारी से समाज में नारी और पुरुष की सही स्थिति को सामने लाए। यदि बुद्धिजीवी वर्ग ने इस ओर समुचित ध्यान नहीं दिया तो फिर शायद किसी के पास पश्चाताप का भी समय नहीं रहेगा। नारी का नारी से विवाह करने की प्रथा और पुरुष का पुरुष के साथ ही जीवन निर्वाह करने की अभिलाषा का बढ़ता प्रचलन इस बात का खुला संकेत है कि समय रहते यदि नारी और पुरुष के बीच इस बढ़ती खाई को सजगता से न पाटा गया तो इसके भयानक परिणाम होंगे और हमारा यह समाज पतन के कितने गहरे गड्ढे में जाएगा इसका अनुमान लगा पाना भी सहज नहीं होगा। नारी की पक्षधर महिला लेखिकाएं और नारीवादी पुरुष लेखक नारियों की दुर्दशा के झूठे-सच्चे किस्से बयान करने में एक-दूसरे की होड़ में यह भूल गए हैं कि उनका यह कुप्रचार शायद उन्हें सस्ती लोकप्रियता तो दिला दे लेकिन उनके इस कृत्य से न तो नारी वर्ग का भला हो रहा है और न ही पुरुष वर्ग का कुछ बिगड़ या संवर रहा है। किसी जमाने में जिस प्रकार प्रगतिशीलता की लहर चली थी और हर छोटा-बड़ा लेखक स्वयं को प्रगतिशील सिद्ध करने के लिए निर्धन मजदूरों और किसानों के जीवन का इतना मर्मतात्मक चित्रण किया जाता था कि बस कुछ न पूछिये। उस जमाने में वही लेखक, कवि या शायर महान समझा जाता था जो अपने देश के गुणगान से ज्यादा रूस और चीन का गुणगान करते नजर आते थे। यही हाल आजकल महिला वर्ग के पक्षधर लेखक व लेखिकाओं का भी है जो भारतीय संस्कृति और पंरपराओं को गुलामी का कारण बताती हैं और पश्चिमी देशों की कथित महिला स्वतंत्रता की वकालत करते दिखाई देते हैं। प्रगतिशील लेखक-लेखिकाओं में से भी अधिकतर ने कभी किसी गांव में जाकर यह नहीं देखा कि खेतों में किसान किस अंदाज से हल चलाते हैं या मजदूर किसी मिल में किस तरह से कड़ी मेहनत करके अपने पसीने को दो जून की रोटी की शक्ल देते हैं। इस संदर्भ में उर्दू के प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर जो नवाब परिवार से संबंध रखते थे, ने बड़ी ईमानदारी से स्वीकार किया था कि झोपडिय़ों में रहने वाले लोग महलों के ख्वाब देखते हैं मगर हम प्रगतिशील लेखक महलों में रहकर झोपडिय़ों के ख्वाब देखते हैं। कितना कड़वा सच उन्होंने बयान किया था। क्या नारी पक्षधर लेखकों में इतना साहस है कि वे इतनी ईमानदारी से स्वीकार कर सकें कि जो वे महिला का चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं कि वह कितना झूठा और कितना सच्चा है। इस संदर्भ में मैं एक प्रसिद्ध उर्दू लेखिका जो महिलाओं की कट्टर पक्षधर अंजु दुआ 'जैमिनीÓ का जिक्र करना चाहूंगा कि उनका एक लेख 'पिटना औरत की नियती नहीं हैÓ आज से 8-10 साल पहले पढ़ा तो मैं आश्चर्यचकित रह गया कि मैं क्या इतना कूपमंठूप हूं कि मुझे अपने आसपास के माहौल का भी पता नहीं जहां औरत रोज पिटती है और मर्द हर रोज दो-एक बार दरिंदगी का चोला पहन लेता है। अंजु दुआ के लेख की इस अतिश्योक्तिपूर्ण को देखकर मुझे गुस्सा भी आया था और तभी से मेरे मन में था कि कभी उससे आमना-सामना हुआ तो जरूर पूछूंगा कि वह अपने इस लेख के बारे में कितनी ईमानदार है? इत्तेफाक से कुछ अरसा बाद उसका मेरा आमना-सामना हुआ तो मैंने उससे पूछा - क्या तुम्हारा पति तुम्हें रोज पीटता है? उसने चौंककर मेरी तरफ देखा था और बोली थी क्यों पूछ रहे हो? मैंने जवाब में उस लेख का हवाला दिया तो वह बोली - मेरा पति तो ऐसा नहीं करता क्योंकि वे तो मेरा बहुत सम्मान करते हैं। मैंने फिर पूछा क्या तुम्हारे ससुर का तुम्हारी सास के साथ ऐसा दुव्र्यवहार है? इस पर भी वह फौरन बोली - नहीं, वे दोनों तो बड़े प्यार से रहते हैं। मैंने फिर उसके आस-पड़ोस के बारे में कुरेदा तो भी उसका उत्तर नकारात्मक था। तो मैंने तेज आवाज में कहा कि फिर तुम्हें पिटना औरतों की नियति कहां से नजर आई? उसका दो टूक जवाब था साहनी साहब कभी झुग्गी-झोपडिय़ों में जाकर देखिये या कभी गांव का दौरा कीजिए तो आपकी आंखें खुल जाएंगी। मैंने बात बढ़ानी नहीं चाही और यह नहीं बताया कि मेरा देहातों से कितना संबंध रहा है और झुग्गी-झोपडिय़ों से कितना वास्ता पड़ा है। मैंने बात वहीं समाप्त करना बेहतर समझा। अंजु दुआ जैमिनी और उन जैसे अन्य रचनाकार अपने ढर्रे पर अडिग रहकर औरत को दयनीय पात्र और पुरुष को हिंसक दरिंदा और शोषक चित्रित करते हैं और पुरुष वर्ग के प्रति औरतों में नफरत का जहर फैलाने को उकसाते रहे और औरत को पुरुष के विरुद्ध मोर्चाबंदी करने की प्रेरणा देते रहे हैं। इन हालात को देखते हुए मैंने महसूस किया कि एक बुद्धिजीवी होने के नाते मेरा यह कर्तव्य बनता है कि मैं न केवल नगरों, महानगरों बल्कि झुग्गी-झोपड़ी और गांवों के जीवन का भी ईमानदारी से अध्ययन करूं और सच्चाई तक खुद पहुंचने के बाद उसे समाज के समक्ष औरत और पुरुष की वास्तविक स्थिति प्रस्तुत कर सकूं। मैं पिछले सात-आठ साल से इस विषय पर पौराणिक पुस्तकों, आधुनिक साहित्य का अध्ययन करने के साथ-साथ दूर-निकट की यात्राएं करके भी नारी-पुरुष के संबंधों को करीब से जानने-समझने का प्रयास किया है। उन्हीं प्रयासों का जो निष्कर्ष निकल पाया है उसे मैं प्रमाणों सहित आपके समक्ष प्रस्तुत करने का दुस्साहस कर रहा हूं, अब यह फैसला आप पर है कि यह बताएं कि नारी की कथित व्यापक दुर्दशा सही है और अगर है तो उसका जिम्मेदार पुरुष है या कहीं इसके लिए नारी ही तो दोषी नहीं है? यही नहीं आप यह भी ईमानदारी से बताएं कि कथित पुरुष प्रधान समाज में पुरुष की बेबसी के लिए कौन जिम्मेदार है?