Wednesday, July 24, 2013

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का

आप सभी ने यह शे’र अक्सर सुना होगा जिसे हर बार उस वक्त दोहराया जाता है जब कोई अजूबा हो जाए यानी बात टनों की और हालात मनों के भी ना हों, तब कहा जाता है
‘‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो काटा कतरा ए खूं न मिला’’।
ठीक वही हाल आजकल हमारी राजनीति और राजनेताओं का हो रहा है जो एक लफ्ज बोलते हैं और सौ शब्द तोलते हैं। यानि पहले के द्वारा कुछ कहे को देर नहीं होती और सुनने वाले उसे तिल का ताड़ बनाने में जरा भी देर नहीं करते। राई का पहाड़ बनाना हो तो किसी इंजीनियर के पास जाने की जरूरत नहीं, हमारे नेताओं की जुबान काफी है। किसी की जीभ से एक पिल्ला कार के नीचे आने की बात फिसली तो यारों ने उसे खींच-खींचकर चीन की दीवार बना डाला। अरे अगर इतनी ही लंबाई बढ़ानी थी तो आज तक उन मानव हितैषी योजनाओं की क्यों नहीं बढ़ाई जो अब तक के अमीरी-गरीबी के बढ़ते हुए अंतर की खाई को पाट देती।
जिस देश में एक घंटे का मिड-डे-मील भी बिना किसी अड़चन के ठीक प्रकार खिलाया नहीं जा सकता वहां और उम्मीद क्या की जा सकती है। और जहां इसमें भी हमें विपक्ष की साजिश नजर आती है तो चूल्लु भर पानी की भी इस देश में इतनी कमी हो गई है कि वह किसी को नजर नहीं आता, न पक्ष को, न विपक्ष को। या वे भी सभी उस मुख्यमंत्राी की तरह हो गए हैं जिसे अपना प्रचार करते वक्त अपनी ही पार्टी द्वारा घोषित भावी पीएम जैसा कद~दावर नेता को ना देखना याद रहा और न ही दिखाना, क्या अनुशासन है? बलिहारी जाएं दल हो तो ऐसा और अनुशासन हो तो, तो भी ऐसा, जहां अध्यक्ष, पार्टी नेता और प्रतिपक्ष नेता सभी को दरगुजर कर बाहर की संस्था के अध्यक्ष की डांट से मसला हल होता हो।
क्या ऐसी ही प्रतिबद्धता अपे कर्तव्यों और निष्ठा अपने लक्ष्य के प्रति सीखने और सिखाने को मिलेगी नई पीढ़ी को। सत्तर साल का अनुभव और कार्यकौशल क्या केवल इसीलिए है कि पार्टी अध्यक्ष की घोषणा को मुंह से न बोलकर अपने त्यागपत्रा द्वारा मलियामेट कर दी जाए। क्या महत्वाकांक्षा की पूर्ति का यही तरीका और सलीका सीखा और सिखाया गया है कि जहां कहने से बात न बने वहां सहने की बजाय दाल-भात में मूसलचंद रहने की प्रकिzया अपनाई जाए और उस पर भी तुर्रा ये कि हम बहुत वरिष्ठ और तपोनिष्ठ हैं।
और जब कzोधवश उठाये कदम ने दुर्वासा रिषि की भांति एक बार सब कुछ नष्ट-भzष्ट होने को था तो फिर कृष्ण की भांति एक ही डांट से क्यों सकपका गए। फिर वह सारा पराकzम और अनुभवजन्य वरिष्ठता किस द्वार में समा गई? बहरहाल, सही किया जो भी किया शायद यह जनता भूल गई थी कि यह राजनीति भी  एक रंगमंच है और यहां हरेक को देर-सवेर अपना जौहर दिखाकर ही मंच पर कायम रहने का उपाय घुट~टी में पिलाया गया है, फिर चाहे कोई हजारे बनकर निष्पक्ष रूप से जनता के मोक्ष के लिए सदाचार की टोपी पहनकर अपना नाटय रूप निभाये अथावा संन्यासी बाना पहनकर रामलीला करे और मौका मिलते ही नारी छवि धारण कर पलायन में ही जीवन प्राप्त करे या फिर चिर कुमार बनकर लोगों की विशाल भीड़ एकत्रिात करके रामायण और महाभारत की महान विभूतियों के सम्मोहन और संबोधन द्वारा मानव देह की आरोग्यता को चिरस्थायी बनाने के लिए अदृश्य सम्पत्ति के फलस्वरूप मंत्रा दान दे और तंत्रा का सहारा ले नये शहर में पुन: महाकल्याण की घोषणा करे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार महाराज युधिष्ठिर ने रथ पर बैठकर दzोणाचार्य की मृत्यु की खबर सुनाई मगर उनके संकटमोचक द्वारा शंखनाद कर उसे जनता को नहीं सुनने दिया गया।
जो भी हो अच्छा हुआ, अब तो आम जनता को यह पता लग ही गया है कि देश में कुछ दल और कुछ नेता सिर्फ इसी जुगाड़ में रहते हैं कि कब उनका और केवल उनका ही नाम सर्वोच्च पद के लिए घोषित हो और कब वे उसके अनुरूप आकर्षक साज-सज्जा धारण करके सजे-सजाये रथ पर सवार होकर किसी भी यात्राा के नाम अपना अभियान चालू करें और जनता से किसी न किसी बहाने उसकी कीमत भरपाई करने के लिए कहें।
सच यह है कि चाहे कोई भी अभियान हो, रथ यात्राा हो, बंद हो अथवा राजनीतिक द्वंद्व हो भुगतना जनता को ही पड़ता है और यही कारण है कि हर पांच साल बाद एक ही बार लुहार की चोट करने वाली जनता अब भलीभांति समझ चुकी है कि उसे कब जागृत होना है, कब करवट बदलनी है, कब उबासी लेनी है और कब खड़े होकर अपना निर्णय सुनाना है। तब तक हमारे ये महान नेतागण चाहे टीवी, रेडियो और वीडियो कान्फzेंस में तरह-तरह के कोण बनाकर अपनी छवि कितनी भी निर्मल और चमकदार बना लें लेकिन जब जनता फेसबुक पर अंतिम निर्णय अंकित करेगी तब यही शेर जिससे हमने आज का यह लेख शुरू किया था फिर उभरकर सामने आएगा जो इसी सत्य को पुन: उजागर करेगा -
‘‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो काटा कतरा ए खूं न मिला’’