Friday, April 30, 2010

अमर साहनी कृत ‘अथ पुरुष व्यथा’ की व्यथा

अमर साहनी कृत ‘अथ पुरुष व्यथा’ की व्यथा

Ramesh Parsoon
4/75, Civil Lines, Behind Telephone Centre, Bulandsahar-203001 (U.P.)

‘अथ पुरुष व्यथा’ अर्थात पुरुष वर्ग की व्यथा का निरुपण एवं नारियों द्वारा किए गए व किए जा रहे पुरुष-उत्पीड़न के पक्ष का प्रस्तुतिकरण। यह है प्रख्यात कवि एवं लेखक अमर साहनी द्वारा १७ उपशीर्षकों में अभिव्यक्त एवं लिखित पुस्तक ‘अथ पुरुष व्यथा’ का मूल कथ्य। पुरुष भी अचम्भित है कि उसकी सुप्त अस्र्तव्यथा एवं नारियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न की अभिव्यक्ति जिसे आज तक बड़े से बड़ा साहित्यकार भी इतना खुलकर सामने लाने का साहस नहीं कर पाये, अमर साहनी ने इतनी सहजता से कैसे कर दी। दूसरी ओर नारीवादी साहित्यकारों एवं मुक्ति के मोर्चे तक लाने के लिए नारी वर्ग को उकसाने वाली कथित प्रगतिशील लेखिकाओं में तिलमिलाहट इसलिए भी है कि साहनी ने नारीवादियों के नारों को मात्र ‘शगूफा’ सिद्ध कर दिया है। उन नारों का खोखलापन उजागर कर दिया है, उनके साहित्यिक पाखंड एवं सांस्कृतिक ढांेग को सबके सामने रख दिया है, उसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह बेबाक तरीके से लगा दिया है। एक संवेदनशील लेखक इससे उद्वेलित क्यों हो उठा? उसे पुरुष-व्यथा लिखने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी? इन सब कारणों का सार उनके संपूर्ण तार्किक कथन में स्वत: उल्लेखित है। उन्होंने अपने ‘उपसंहार’ में स्पष्ट किया है कि वे नारी अस्मिता के कदाचित विरोधी नहीं हैं। नारी शक्ति की उपादेयता, उसके औचित्य, उसकी आवश्यकता, उसकी सहभागिता को चुनौती देने का अथवा सारा दोष नारी जाति पर मढ़कर उसे आरोपित करने का, अपमानित करने का उनका इरादा कदाचित नहीं है। लेकिन ऐसी स्थिति में वे सत्य को असत्य से एवं तथ्य को अतथ्य से ढककर या मुंह फेरकर नहीं बैठ सकते। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि समाज में क्या नारी द्वारा पुरुष का उत्पीड़न नहीं होता या फिर मात्र पुरुष द्वारा ही सदैव नारी का उत्पीड़न किया जाता है, इसी विचार से उद्वेलित होकर जो तथ्य उन्होंने इस सभ्य समाज के विभिन्न वर्ग की नारियों के, ऐतिहासिक पात्रों के, मिथकीय नारी चरित्रों के उदाहरण दे-देकर प्रकट किए हैं, वे एकदम समीचीन हैं, विचारणीय हैं, चिंतनीय हैं। उपेक्षणीय तो कदाचित नहीं। वैसे भी वर्तमान दौर में हम खुली आंखों से स्पष्टत: देख रहे हैं कि नारी-विमर्श के परिप्रेक्ष्य में नारी उत्थान, नारी सुधार, नारी जागरण, नारी चेतना, नारी विकास, नारी स्वातंत्रय या नारी मुक्ति के नाम पर जितने भी आंदोलन सड़क पर या समाज में, राज्यों में या राजनीति में अथवा साहित्य में या संस्कृति में किए गए हैं अथवा किए जा रहे हैं, वे सभी मूलत: पुरुष-पक्ष की उपेक्षा करते हुए, अवमानना करते हुए व प्रताड़ना देते हुए ‘नारी-नारी’ का नाम लेने मात्र, नारी-उत्पीड़न का नकारात्मक पक्ष प्रदर्शित करते हुए विकसित किए गए हैं तथा विकसित किए जा रहे हैं। इन सभी का दृष्टिकोण सर्वथा एकांगी है, एक पक्षीय है। एकांगी व एक पक्षीय इसलिए कि ऐसे सभी कार्यों में वैचारिक पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह पहले से ही इस प्रकार निर्धारित कर लिए गए हैं अथवा किए जा रहे हैं कि समाज में नारी का शारीरिक, मानसिक व आर्थिक उत्पीड़न लगातार किया जा रहा है, इसके लिए मात्र पुरुष एवं पुरुष मानसिकता ही उत्तरदायी है क्योंकि इस समाज का परिवेश पूर्णत: पुरुष प्रधान है जिसके कारण नारी को दबाया नहीं जा रहा है, पीछे धकेला जा रहा है, उसके साथ अन्याय किया जा रहा है, अत: पुरुष समाज का विरोध होना चाहिए, उसकी अवमानना होनी चाहिए, उसकी उपेक्षा होनी चाहिए, उसका अपमान होना चाहिए, जिस स्तर पर जितना भी संभव हो सके पुरुष आधिपत्य के विरुद्ध विद्रोह होना चाहिए, यह सब करने के लिए यदि शालीनता त्यागनी पड़े तो त्याग देनी चाहिए, मर्यादाएं तोड़नी पड़ें तो तोड़ देनी चाहिएं, आचरण की धज्जियां बिखेरनी पड़ें तो बिखेर देनी चाहिएं क्योंकि यह पुरुष-वर्ग अत्याचारी है, बलात्कारी है, अहंकारी है, हिंसक है, बलवान है, समर्थ है, शारीरिक रूप से अधिक सक्षम है, आर्थिक रूप से अधिक सुदृढ़ है, मानसिक रूप से अधिक संपन्न है, सारे अवसर इसी के हाथ में हैं, पुरुष ही इस व्यवस्था का संचालक बना हुआ है, व्यवस्थापक बना हुआ है। अत: इसी कारण नारी शोषित है, विवश है, विपन्न है, असहाय है, सहनशीला है। अब उसे पुरुष व्यवस्था से मुक्ति चाहिए, स्वतंत्रता चािहए, इसी से प्रगतिशीलता स्थापित होगी, नारी-चेतना बलवती होगी, नारी-विमर्श सार्थक होगा, पुरुष के चंगुल से नारी को मुक्ति मिलेगी। इस प्रकार की अवधारणाएं स्थापित कर ली गई हैं, शब्द गढ़ लिए गए हैं चाहे वे समाज व नारी को दिखाई देने में उन्नति की ओर ले जाते हुए लगे जबकि हैं वास्तविक रूप में पतन की ओर ले जाने वाले। इस पर क्या अंतर पड़ता है। इनका महिमा-मंडन तो ‘प्रगतिशील’ की छाप से ही हो रहा है। जो इनकी अवधारणाओं के विरुद्ध तर्क करने की हिमाकत करेगा, उसे रूढ़िवादी, परंपरावादी व सामंतवादी के ठप्पे से ठाप दिया जाएगा। इन अवधारणाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रवक्ताओं की भीड़ भरे नामों से कुछ नाम जो उभरकर सामने आ रहे हैं, वे हैं - सुचेता कृपलानी, नंदनी सत्पती, मोहिनी गिरि, वृंदा कारत, महादेवी वर्मा, शिवानी, कृष्णा सोवती, चित्रा मुदगल, प्रभा खेतान, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, कमल कपूर, वैजयंती माला, हेमामालिनी, जयाप्रदा, शबाना आजमी, जयललिता, प्रतिभा, दीपा मेहता, नीना गुप्ता, मल्लिका सहरावत, अज्ञेय, राजेंद्र अवस्थी, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, बिपाशा बसु, जॉन इब्राहिम, आमिर खान, निर्मल वर्मा, मुकेश भट्ट, खुशवंत सिंह, तीस्ता सीतलवाड़, करीना कपूर व श्रीदेवी आदि की लंबी श्रृंखला है। यदि इनके मूल आचरण पर दृष्टि डाली जाए अथवा अपने आसपास ऐसे प्रगतिशील समाजसेवकों एवं साहित्यकारों को दृष्टिगत किया जाए तो नारीवादिता के अलम्बरदारों में अधिकतर वे स्त्रियां ही बढ़-चढ़कर भाग लेती हुई दिखाई देंगी जो जानबूझकर या परिस्थितिवश अभी तक ‘कुंआरी’ हैं या विवाह के पश्चात पुरुष का परित्याग कर आई हैं या पति ने उनका त्याग कर दिया है, या जो पर-पुरुष या अनेक पुरुषों से संबद्ध हैं अथवा पहले पति को छोड़कर दूसरे पति के साथ रह रही हैं अथवा ऐसे पुरुष की पत्नी हैं जिसने उनके कारण अपनी पहली पत्नी व बच्चों तक को छोड़ दिया है या कुछ बिना विवाह के ही पुरुष के साथ पत्नी की रह रही हैं। इसी प्रकार ‘प्रगतिशील’ नाम से महिमा-मंडित पुरुषों को अपने आसपास ही ध्यान से देखिये तो मिलेगा कि उनमें से अधिकांश प्रगतिशीलता के नाम पर अपनी पत्नी की सहमति अथवा असहमति से अनेक कन्याओं का, औरतों का खुलकर या छिपकर उपयोग-उपभोग कर रहे हैं। कुंआरे हैं या विधुर हैं। पत्नी है तो पत्नी से अलग हैं या पत्नी छोड़कर चली गइ है। दो या अधिक पत्नियां रखे हुए हैं या विरक्त हैं। ‘शराब-सिगरेट-नारी’ इनका शौक है, इनकी लत है, बौद्धिकता के पोषण के लिए वे इसे आवश्यक मानते हैं। नारीवादिता का शगूफा छोड़ते हंै, अखबारों में छपते हैं, समारोहों में विज्ञापित होते हैं। इन कथित प्रगतिशील नारीवादियों ने अंतत: नारी को क्या दिया? मुंबई में सड़कों पर नंगी होकर दौड़ लगाती नारी को मुक्तता दी, चौराहों पर चूड़ी तोड़कर, ‘ब्रा’ उतारकर उसे फूंकती उच्छृंखलता दी, बदतमीजी करने की छूट दी, व्यावसायिक दौड़ में अंधे बाजार दिए, ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ दी, समलैंगिकता दी, जुगोलो संस्कृति दी, मूल्यहीनता दी, जींस दी, टॉप दी, मात्र चड्ढी व उरोज दर्शना ‘ब्रा’ में नग्न-अर्धनग्न विज्ञापन-प्रदर्शन हेतु टेलीविजन पर दर्शन की उद्दंडता दी, लिपटने-चिपटने, चूमने-चाटने के दृश्यांकन दिए, कामतृप्ति की कृत्रिम-अकृत्रिम सुविधाएं दी, मां-बाप को बेलिहाज बेटियां दी, मेकअप की नई स्टाइल दी, घरों को तोड़ती बहुएं दीं, ससुरालवालों को कानूनी पेंचों में फंसाती हुई लड़कियां दीं, पुरुष ‘वेश्याओं’ का दोहन करती धनाढ्याएं दीं, पर-पुरुष, बॉस अथवा माननीयों का शोषण करती हुई युवतियां दीं। नहीं दिया तो उस ओर ध्यान नहीं दिया जिस ओर संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट एवं नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े चीख-चीखकर बता रहे हैं कि भारतवर्ष में प्रतिदिन २००० कन्या भ्रूणों की हत्या की जाती है, हर तीसरे मिनट में एक महिला का उत्पीड़न हो जाता है, प्रत्येक ७६वें मिनट में एक महिला दहेज दानवों द्वारा मार दी जाती है, प्रत्येक ९वें मिनट में एक महिला अपने पति अथवा संबंधियों द्वारा उत्पीड़ित की जाती है तथा प्रत्येक १५ से ४९ वर्ष की महिलाओं में से ७० प्रतिशत महिलाएं किसी-न-किसी प्रकार घरेलू एवं बाह्य हिंसा का शिकार हो जाती हैं। इस सब में भी सबसे प्रमुख तथ्य यह है कि इन कृत्यों के पीछे कृत्य करने वाली अथवा मिल-मिलाकर पुरुषों को ऐसा कृत्य करने के लिए उकसाने वाली महिला ही होती है। चाहे वह पुरुष या स्त्री की मां के रूप में हो या सास के रूप में हो, बहन के प में हो या ननद के रूप में हो, भाभी के रूप में हो या देवरानी-जेठानी के रूप में हो, बहू के रूप में हो या बेटी के रूप में हो, क्रिया की उत्प्रेरक महिला ही होती है, पुरुष को तो कर्ता बना दिया जाता है। किन्हीं-किन्हीं स्थितियों में तो महिला ही महिला के विरुद्ध होने वाले सीधे अत्याचार का सीधा-सीधा कर्ता-कारक-कारण होती है। आश्चर्य है! ऐसी घटनाओं में छिपे ऐसे तथ्यों पर अन्वेषण, चर्चा, उल्लेख, बहस, विश्लेषण, विवेचन ये तथाकथित नारीवादी, बुद्धिजीवी या कार्यकर्ता क्यों नहीं करते? इतना ही नहीं नारी स्वातंत्रय की अगुवा नारियां व संस्थाएं तक भी केवल उच्च वर्ग अथवा उच्च-मध्यम वर्ग अथवा अति उत्तेजना के साथ प्रकट हुई घटनाओं में ही हस्तक्षेप किया हुआ दिखलाती हैं। इनको गोबर बीनती हुई, सड़क कूटती हुई, घास काटती हुई, बोझ ढोती हुई, ग्रामीण व अशिक्षित परिवेश में घड़ी-घड़ी मायके व ससुराल वालों के ताने, उत्पीड़न, शोषण, दोहन, दुरुपयोग सहती हुई लाचार महिला दिखाई नहीं देती। उच्च वर्गों द्वारा ग्रामीण अंचल में दरिद्र एवं दलित महिलाओं के साथ किए गए अनाचार, बलात्कार दिखाई नहीं देते। ये संस्थाएं हिन्दू तथा मुस्लिम महिलाओं के दुख में अंतर और उस अंतर के अनुसार व्याख्याओं में अंतर करना तो भलीभांति जानती हैं लेकिन देश की ग्रामीण एवं पिछड़ी हुई अधिकांशत: उपेक्षित आबादी में महिलाओं के कितने विकास कार्यक्रम, कितने सुधार कार्यक्रम तथा कितने न्याय-संरक्षण कार्यक्रम कैस-कैसे चलाती हैं, क्या-क्या गतिविधियां चालू रखती हैं, इसका ब्यौरा कहीं नहीं देतीं। यह तो तथ्य रूपी सिक्के का एक पहलू रहा। दूसरा पहलू है पुरुष उत्पीड़न का। प्रश्न है कि क्या केवल महिलाओं का ही उत्पीड़न होता है समाज में? क्या पुरुष का उत्पीड़न नहीं होता? संयुक्त राष्ट्र संघ की कोई रिपोर्ट अथवा नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिकार्ड रिपोर्ट अथवा जनवादियों-प्रगतिवादियों या नारी वादियों द्वारा कभी भी निष्पक्ष रूप में पुरुष-उत्पीड़न से संबंधित आंकड़े अथवा सर्वेक्षण क्यों प्रकाशित-प्रसारित नहीं किए जाते? यह कभी रिकार्ड पर आता ही नहीं कि वास्तविक रूप में कितने प्रतिशत पुरुष नारियों द्वारा उत्पीड़ित हैं? किस-किस प्रकार से अपने आसपास से ही यदि एकत्रित करके देखा जाए तो पाया जाएगा कि ९० प्रतिशत से अधिक शिक्षित अथवा अशिक्षित पुरुष नारियों से जिसमें उसकी मां, बहन, पत्नी, पुत्री, प्रेमिका, रखैल-मित्र सम्मिलित हैं, किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में, प्रकट अथवा अप्रकट रूप में, शारीरिक उपीड़न के, मानसिक उत्पीड़न के अथवा आर्थिक उत्पीड़न के बुरी तरह शिकार हैं। कहा जाता है कि नारी अत्यधिक सहनशील है लेकिन देखा जाए या सर्वे किया जाए तो निश्चित रूप से पाया जाएगा कि पुरुष वर्ग का अधिकतम भाग अउल्लेखित पीड़ा के साथ नारी के भिन्न-भिन्न रूपों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से किए जा रहे मानसिक, आत्मिक व आर्थिक उत्पीड़न की विकट स्थिति में जी रहा है। उसकी विवशता तो देखिये कि उसने किसी न किसी स्तर पर मानसिक पीड़ा की शाब्दिक चुप्पी के साथ कैसे-कैसे और कितनी सहनशीलता स्वीकार कर ली है। सूटेड-बूटेड, अच्छे-अच्छे विचारक, विज्ञ-विद्धान, उच्च पदेन आरुढ़, सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त अथवा सक्रिय आंदोलनों में रत पुरुषों की विवेचना करके देख लीजिए, विश्लेषण करके देख लीजिए, महिलाओं द्वारा किसी न किसी रूप में अति सूक्ष्म एवं छद्म तरीके से किए गए उत्पीड़न का शिकार मिलेंगे। कभी-कभी नारियों द्वारा पुरुष का इस प्रकार किया गया अव्यक्त उत्पीड़न ही रह जाता है। ऐसे ही सारे तथ्य, ऐसी ही सारी बातें, ऐसी ही सारी व्यथाएं आलोखित हैं, अमर साहनी कृत ‘अथ पुरुष व्यथा’ में। बस इसी बात पर वास्तविकता को व्यक्त करने वाले ७४ वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार पर कथित प्रगतिशील विचारकों तथा नारीवादियों की भृकुटियां तन जाएंगी। उनकी सोच को बुजुर्आ सोच, उनके विचारों को परंपरावादी विचार, उनकी भावनाओं को सामंतवादी वृत्ति की अपगाहना करने वाली बताया जाएगा। यह कैसी प्रगतिशीलता है, यह कैसी नारीवादिता है? यह तो कुछ ऐसी ही बात हुई कि जैसे किसी शहर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो जाए तो समस्त मीडिया, पत्रकार, बुद्धिजीवी उसे सांप्रदायिक दंगा नामित करना पसंद करेंगे। हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं। हिन्दू मारा जाएगा तो हिन्दुओं का पक्ष रखने वालों को सांप्रदायिक बताया जाएगा और यदि मुस्लिम मारा जाएगा तो मुस्लिम के पक्ष में बोलने वाले को धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील, समाजवादी घोषित किया जाएगा। इसी प्रकार, नारी चाहे गलत है अथवा सही, नारीवादियों की दृष्टि में उसे गलत बताने वाला बुजुर्आ है, उसे सही बताने वाला, उसके पक्ष में हंगामे का नाटक करने वाला प्रगतिशील है, नारीवादी है, आधुनिक विचारधारा का पोषक है? ऐसा ही कुछ अमर साहनी की इस कृति के साथ व्यवहृत होना निश्चित है। यद्यपि स्वयं साहनी किसी भी प्रकार गलत रूढ़ियों और सड़ी-गली मान्यताओं को ढोने वाला नहीं है किन्तु वह निश्चित रूप से गलत अवधारणाओं के ढांेगी प्रदर्शन एवं बनावटी नारीवादिता का ढिंढोरा पीटे बिना उनके सुमार्ग की, उनकी उन्नति की, उनको मिलने योग्य वांछित न्याय एवं लाभ की कामना करने वालों में हैं। सच तो यह है कि पुरुष उत्पीड़न, पुरुष-पीड़ा, पुरुष-वेदना जैसे संवेदनशील विषय साहित्य व समाज के प्रचलन में प्राय: उपेक्षित ही हैं, उनको खुलकर सम्मुख लाने का जो साहस दिखाया है, साहनी ने वह निश्चित रूप से ऐतिहासिक महत्व का है। यह महत्वपूर्ण कार्य साहित्य में चिंतन-मनन करने वाले बौद्धिक वर्ग को पुरुष-पीड़ा के संदर्भ में उत्पीड़न के वास्तविक एवं संभावित विश्लेषण प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध होगा। पीड़ा तो पीड़ा है। पुरुष की ही अथवा स्त्री की। क्या पुरुष की पीड़ा, पीड़ा नहीं है। इस पुरुष-पीड़ा के पक्ष को ‘अथ पुरुष व्यथा’ में कुशलता से स्थापित करने का सफलतम सुप्रयास किया है साहनी ने। उन्होंने ‘प्रस्तावना’ में स्पष्ट कहा है कि ‘बुद्धिजीवी वर्ग का यह अनिवार्य कर्तव्य बनता है कि बिना सस्ती शोहरत की, लालच के ईमानदारी से समाज में नारी और पुरुष की सही स्थिति सामने लाएं।’ जयभगवान गुप्त ‘राकेश’ ने ‘अथ पुरुष व्यथा’ के पक्ष में सही व सटीक आख्या प्रस्तुत की है कि ‘स्त्रीवादी लेखक-लेखिकाओं द्वारा मोर्चाबंदी के तहत पुरुषों के विरुद्ध ज्यादा उकसाया जाने लगा तो इसके बाद इन्हें पुरुष तो बेचारा और पिछड़ा हुआ एक ऐसा निरीह आरोपी लगा जिसके पास कहने को तो बहुत कुछ है मगर उसकी सुनने वाला कोई नजर नहीं आता।’ साहनी ने बड़े सलीके से सिलसिलेबार पुरुष की उपेक्षा, अवहेलना, अवमानना व प्रताड़ना के संदर्भ में मार्मिक अभिव्यंजना तथा अक्षम स्त्री के मुकाबले सक्षम होते हुए भी पुरुष की असहाय अवस्था भावनात्मक रूप में व्यांजित की है। घर पर नारी के वर्चस्व की उनकी आख्या व टिप्पणियों से असहमत होने का तो कोई कारण बनता ही नहीं है। पत्नी की इच्छा, मान-मनुहार, आपत्तियों को ‘हमारा समाज पुरुष प्रधान-कितना सच’ में तथा ‘अपनी मर्जी का मालिक नहीं’ में ‘सुदामा-श्रीकृष्ण-रूक्मणी’ के उदाहरण के साथ व्यावहारिक प्रस्तुति प्रस्तुत की है। ‘मान-अपमान : नारी के रहमो करम पर’ यह पुरुष-पीड़ा के कथन का पांचवां चरण है। क्या हम समाज और परिवार में प्रतिदिन नहीं देखते कि नारी चाहे तो असामान्य स्थितियों में भी पुरुष के सम्मान की रक्षा अक्षुण रख सकती है और यदि चाहे तो पुरुष के स्थापित सम्मान को देखते-देखते क्षणभर में मटियामेट कर सकती है। इस कथन की पुष्टि के लिए एक ओर भगवान विष्णु-लक्ष्मी जी एवं बुढ़िया की लोकोक्ति का सहारा लिया गया है तो दूसरी ओर सत्य घटना का। सहारा किसी भी कथ्य का लिया हो लेकिन शीर्षक के कथन को झुठलाया नहीं जा सकता। एक ओर नारी का मान-सम्मान बनाए रखने के लिए पुरुष द्वारा किए गए समझौतों की व्यथा है तो उससे अगले सोपान पर सिकंदर-उसके गुरु अरस्तू एवं वेश्या के कथ्य द्वारा नारी के इशारों पर पुरुष के नाचने की विवशता का सजीव चित्रण है। नारी की इस शाश्वत सोच का कि ‘नारी को पुरुष की परेशानियों से कोई मतलब नहीं, उसकी मांगों को पूरा करना पुरुष का दायित्व है’ कैकेयी, लैला, रक्तबीज एवं मच्छर के कथोप कथनों द्वारा अनुपम दृश्य उपस्थित किया है। इसके अतिरिक्त ‘घरेलू हिंसा’, ‘यौन शोषण’, ‘नारी का मजबूत शिकंजा’, ‘त्रिया हट’, ‘देह व्यापार’, ‘स्वार्थ साधिका’, ‘दूसरी औरत’, ‘सैडिस्ट (विकृत) स्वभाव’ जैसे स्वव्याख्यायित एवं तीव्रता से अभिव्यंजना प्रस्तुत करने वाले उपशीर्षकों के कथन एवं पुष्टि हेतु प्रस्तुत उदाहरणों से नारी के विभिन्न रूपों को, विविध स्वरूपों को, त्रिया चरित्र की कुटिलता को एवं स्त्री जाति की छलपूर्ण कपटता की नग्नता को तर्कसंगत ढंग से उद्घाटित कर दिया है जिसके कारण पुरुष की असहजता, असहायपन, असहनीय को भी सहन करने से उत्पन्न छटपटाहट, विष बुझे तीरों से आहत अव्यक्त वेदना, असामान्य स्थितियों में स्वयं को सामान्य बनाये रखने की विवशता एवं पग-पग पर पुरुष-व्यथा की वास्तविकता की परतों के नीचे दबी परतों को भावनात्मक धरातल पर उकेर कर विचारोत्तेजना की परिणति तक पहुंचाने में साहनी द्वारा लेखकीय क्षमता का चिंतनपूर्ण अन्यतम उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। लेखक अपने मिशन में, अपने उíेश्य में पूर्णत सफल सिद्ध हुआ है। उसके मन्तव्य की सकाररात्मकता समस्त संभावित नकारात्मकता को नकार कर पुरुष-पीड़ा की पीड़ित अनुभूतियों का संवेदनात्मक स्पर्श कराते हुए आगे बढ़ गई है। लेखक ने तथाकथित नारीवादियों की तरह दोहरा मापदंड अपनाते हुए न तो किसी स्थल पर नारी की प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्ति में छुपी हुई क्रूरता-उच्छृंखलता एवं उíंडता को छुपाने का या परिवर्तित करने का प्रयास किया है और न ही नारी की वास्तविक वेदना को आहत करने के मूल्य पर पुरुष वेदना को बलात् अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। यह इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है कि लेखक ने जो कुछ कहा है, पूर्णत: ईमानदारी के साथ कहा है, उसमें जरा सी भी कृत्रितमा या अतिश्योक्ति नहीं है। जो कुछ वास्तविक है या जो कुछ जैसे घटित हो रहा है वैसे ही वर्णित किया हैं उसका तात्पर्य, उसका मन्तव्य, उसकी दशा, उसकी दिशा एकदम स्पष्ट है। कोई पूर्वाग्रह नहीं। कोई दुराग्रह नहीं। न तो उसने किसी की प्रगतिशीलता पर चोट पहुंचाई है और न ही वह स्वयं किसी भी स्तर पर अप्रगतिशील है। पुरुष-वेदना को उजागर करना उसका लक्ष्य था, वह उसने चुनौतियों की परवाह किए बिना अर्जित किया ही क्योंकि मानने वाले चाहे मानते रहे, ऐसा तो कदापि स्थापित नहीं हो सकता कि नारी-वेदना का बखान करना तो प्रगतिशीलता है और पुरुष-वेदना का बखान करना प्रगतिशीलता नहीं है। साहनी की यह साहित्यिक कृति उनके १७ शीर्षकबद्ध उप निबंधों के सम्मिलन से सृजित एक वृहद एवं विस्तृत निबंध के रूप में है जिसकी भाषा सहज, सरल, उर्दू-पंजाबी मिश्रित हिन्दी की बोलचाल की भाषा है तथा शैली आख्यात्मक एवं विवेचनात्मक है। विविध एवं विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से रोचकता जीवंत रखी गई है जो स्वत: सुग्राह्य है, सुपाठ्य है, सारगर्भित है एवं तार्किक है। विश्लेषणात्मक गवेषणा की दुरुहता से बचा गया है। कृति प्रयोगात्मक है लेकिन प्रयुक्त मिथकीय उदाहरणों में सावधानी बरती जानी चाहिए थी क्योंकि पौराणिक प्रसंगों का इतिहास पौराणिक ही होता है जो स्वयं में पूर्णत: स्पष्ट नहीं है। एक प्रसंग एक पुराण में एक तरीके से कहा गया है तो दूसरे पुराण में वही प्रसंग दूसरे तरीके से। Upaर से इन प्रसंगों पर भिन्न-भिन्न लोकोक्तियां गढ़ ली गई हैं जो सदैव विवाद का विषय बनी रहती हैं। इन प्रसंगों का उपयोग संभलकर ही किया जाता तो अधिक प्रभावशाली रहता। प्रकाशक को यह पता अवश्य होना चाहिए था कि ‘पुरुष को ‘पुरूष’ नहीं लिखा जाता। इस निबंधात्मक कथ्य के कथन में सान्निहित तथ्यों से स्वयं स्पष्ट है कि विषयगत कथ्य के उद्घाटन का अर्थ यह कदाचित नहीं लगाया जा सकता कि लेखक अंतत: नारी विरोधी है, नारी का विकास नहीं चाहता, नारी की प्रगति उसे स्वीकार्य नहीं, नारी के उत्थान से असहमत है, नारी को समाज का अनिवार्य अंग नहीं मानता, नारी को घर-परिवार की आवश्यकता नहीं समझता, नारी को दायित्वों के निर्वहन के लिए समर्थ, सक्षम व योग्य नहीं मानता, पुरुष वर्ग के अन्याय के विरुद्ध नारी के संघर्ष के औचित्य को महत्व नहीं देना चाहता, यथास्थितिवादी है, रूढ़ियों में जकड़ा है, संकीर्ण विचारों का प्रवर्तक है या नारी-कुंठा से कुंठित है। इन सभी बातों पर खुला खुलासा लेखक अपनी प्रस्तावना एवं कथन के उपसंहार में पर्याप्त रूप से कर चुका है। उसके उल्लेखित उल्लेखों से इतना ही ध्वनित होता है कि उसे नारी के उस रूप-स्वरूप पर आपत्ति है जो पूर्णत: उíंड है, उच्छृंखल है, स्वतंत्रता के नाम पर अमर्यादित है, संस्कारनष्टा है, आचरण में अव्यावहारिक है, मानसिक विकृति से ग्रस्त है, कुप्रवृति का पोषक है, पथभ्रष्टा है, कुमार्गी है, जिसके कारण समाज प्रभावित हो रहा है, परिवार बिखर रहा है, पुरुष स्वयं को प्रताड़ित एवं उत्पीड़ित अनुभूत कर रहा है। लेखक की मान्यता है कि नारी चाहे तो कुमार्गी व्यवस्था को सुमार्ग पर ला सकती है, परिवार को सुगठित रख सकती है, सुदिशा प्रदान कर सकती है। अपने सुकृत्यों एवं पुरुष के साथ सहकार एवं प्यार से गली-सड़ी रूढ़ियों को तोड़कर, आबद्ध बेड़ियों को खोलकर ऐसी मान्यताएं स्थापित कर सकती है जिससे दुष्प्रवृतियों का अंत एवं परिवार व समाज का सतत गतिशील विकास संभव हो सके। इन सभी वांछित-अवांछित प्रक्रियाओं के अंतर्गत पुरुष व्यथा की उत्सर्जना को उद्घाटित करना मात्र ही लेखक का ध्येय है जिसे पूरा करने का उसने साहसिक प्रयास किया है, जो स्वयं चुनौतीपूर्ण परंपरा का प्रारंभ है। यह निश्चय ही स्वागत योग्य है। इस विषय पर शोधार्थियों के लिए शोध के नए आयाम प्रतिपादित करने में यह अवश्य ही सहायक होगा। निश्चित रूप से अमर साहनी बधाई के पात्र हैं।