Friday, April 5, 2013

तुलसी कृत रामचरित मानस की लोकप्रिय सुक्तियां


आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व संत शिरोमणि महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना की थी जो उस समय के सभी रचनाकारों से अलग मानते हुए भगवान शिव द्वारा सत्यम् शिवम् सुंदरम् की मुहर लगाकर श्रेष्ठतम् कृति के रूप में प्रतिष्ठित हुई थी। इस ग्रंथ की महिमा का गान अनेक प्रकार से अनेक कथा वाचकों द्वारा तो किया ही गया है, साहित्य के क्षेत्रा में भी इसे अभी तक अनुपम और अद्वितीय माना गया है। सुलभ साहित्यिक अकादमी की पत्रिका ‘चक्रवाक्’ द्वारा अधिकृत उन 600 शोधार्थियों की सूची प्रकाशित की है जिन्होंने इस ग्रंथ का अध्ययन करके अपने द्वारा निर्धारित विषयों पर विभिन्न विश्वविद्यालयों से डाक्टरेट (पीएचडी) की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं।
इसके अतिरिक्त इस ग्रंथ का सर्वाधिक प्रभाव और महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि किसी भी विषय पर चर्चा के समय बड़े या छोटे समारोह में मानस की चौपाई उद्धृत किये बिना वह न तो पूरी मानी जाती है और न ही उसमें प्रामाणिक महत्व की उत्पत्ति हो पाती है।
आज की पहली सूक्ति हम लोकतंत्र के सबसे बड़े आधार मताधिकार पर चर्चित ऐसी चौपाई है जो आज भी सर्वाधिक चर्चा में रहती है, -
‘कोउ नृप होय हमें का हानि’
आप सभी को याद होगा कि यह उक्ति रामायण में दासी मंथरा द्वारा महारानी कैकई को अपने पुत्र भरत के लिए राजा दशरथ से राज्य मांगने हेतु उकसाते समय कही गई थी। आज भी लोकतंत्र में इस उक्ति का अर्थ सबसे अधिक इसलिए बढ़ जाता है कि जनता में जनता द्वारा ही राजा का चुनाव किया जाता है न कि राजशाही परंपरा के अनुसार वंश के अधिकार के अनुसार। यह सभी जानते हैं कि राजा दशरथ द्वारा राम को राजतिलक किये जाने की घोषणा की जा चुकी थी और उसकी तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं, जब मंथरा ने अपने दिमाग की इस कुत्सित भावना का पूरे का पूरा ज्वार महारानी कैकई के दिल-ओ-दिमाग में भरने का प्रयास करते हुए असफल रहने पर अंतिम बाण के रूप में इसका प्रयोग किया।
और यह प्रयोग ऐसा सफल सिद्ध हुआ कि मंथरा भी चकित रह गई। इस संबंध में राष्ट्र कवि स्व. मैथिलीशरण गुप्त ने भी अपने महाकाव्य ‘साकेत’ में महारानी कैकई के पश्चाताप दर्शाते संदर्भ में बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है :
"क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी,
मेरा ही मन रह न सका निज विश्वासी।"
और वास्तव में दासी मंथरा का चलाया हुआ बाण इतना सटीक कारगर सिद्ध हुआ कि रानी कैकई का âदय जो इससे पहले तक टस से मस न होते हुए केवल राम और दशरथ के ही गुणगान में जुटा था, इतनी सी बात से कि "चेरी छांड़ि ना होउ रानी" अर्थात् देख लो रानी मैं तुम्हारे ही हित की बात कर रही हूं वरना मुझे क्या है? कोई भी राजा बने यानि राम या भरत मुझे तो कोई फर्क पड़ना नहीं है क्योंकि मैं तो दासी की दासी ही रहूंगी।
इस बात का रानी कैकई के दिल पर भी इतना तेज असर हुआ कि उसने उस पर पूरा विश्वास कर लिया कि वास्तव में ही यह दासी तो मेरे ही हित की बात कर रही है क्योंकि भरत के राजा बनने पर भी ये तो दासी ही रहेगी लेकिन मैं (कैकई) राजमाता बन कहलाउगी और उसके बाद का हाल हम सभी जानते हैं।
इस तरह की अनेक प्रसंगों से संबंधित रामचरित मानस की अर्धालियां अर्थात् चौपाई अलग-अलग रंगों और बिम्बों को व्यक्त करते हुए हमारी दैनिक गतिविधियों को प्रभावित करती चलती हैं। ऐसा ही एक अन्य प्रसंग तुलसीदास जी ने जनकपुरी का प्रस्तुत किया है, जिसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है, क्योंकि उन्होंने अवधी भाषा में रचित ये चौपाइयां निश्चय ही अनुपम और अद्वितीय बनी हैं, जैसे -
"गिरा अनयन नयन बिनु वाणी" 
अर्थात् वाणी देख नहीं सकती और नयन बोल नहीं सकते। तो फिर ईश्वर के उस रूप का वर्णन कैसे या किस प्रकार हो जिसे देखकर नयन और वाणी दोनों ही प्रभावित हो रहे हैं।
ऐसे ही एक अन्य प्रसंग में जब जनकपुरी में अवध के दोनों राजकुमार (राम और लक्ष्मण) भ्रमण के लिए निकले हैं और पूरा शहर उन्हें देख-देख कर अपने-अपने शब्दों में उनकी मोहक और आनंददायक छवि का दर्शन लाभप्राप्त करके वर्णन करने का प्रयास कर रहे हैं, तब तुलसीदास जी ने केवल सोलह मात्रा की एक ही चौपाई में इतना प्रभावशाली काव्यांश रचकर इतिहास बना दिया - "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।" 
और चमत्कार यह है कि इतनी बड़ी बात इतने सरल शब्दों में व्यक्त करते हुए न तो कहीं मात्रा भंग हुई और न ही कहीं शाब्दिक दोष पैदा हुआ।
धन्य हैं बाबा तुलसीदास और उनकी वह लेखनी जिससे उन्होंने इतने महान् ग्रंथ की रचना संपूर्ण करते हुए लिखा -
"हरि अनंत हरि कथा अनंता।"