Wednesday, September 22, 2010

यादें कलम के धनी भीमसेन प्रभाकर मुखी की

सही तो याद नहीं पड़ता लेकिन आज से लगभग 20-22 साल पहले मेरी पहली मुलाकात ‘भारत-दर्शन’ समाचार-पत्र के संपादक व प्रकाशक भीमसेन प्रभाकर मुखी जी जब हुई तो लगा कि केवल चार पेज का अपना अखबार निकालने वाला यह व्यक्ति कुछ न कुछ व कहीं न कहीं असाधारण जरूर है। धीरे-धीरे मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा और उनके बारे में जानकारी होने लगी। उनका मत था कि समाचार छापने के कोई पैसे नहीं लगते तो मुझे जोर का झटका धीरे से लगा। यह कैसा पत्रकार है जो आए हुए पैसे को ठुकरा रहा है और रोज ही पैसे के लिए चिल्लपौ भी मचाता है और सिद्धांतों पर भी डटा हुआ है। वास्तव में यह भेद तब ही खुला कि पत्रकारिता जो दिखती है वह अलग दुनिया है। उन दिनों वे लगभग साप्ताहिक से अपने अखबार को दैनिक बनाने में लगे हुए थे और इसके लिए न तो साधन ही पर्याप्त थे और न ही सहयोगी इतने थे कि वे उसे आराम से चला पाते, लेकिन कहा जा सकता है कि जैसे-तैसे वे उसे खींच रहे थे, ऐसे में भी वे हिन्दी के घोर पक्षधर रहे और मुलायम सिंह यादव द्वारा उत्तर प्रदेश में हिन्दी लागू करने पर उनकी भरपूर सराहना की।
एक बात जरूर थी कि यह समय वह था जब फरीदाबाद में कोई भी दैनिक अखबार यहां की खबरें नहीं छापता था और यहां तो किसी का कार्यालय भी विधिवत रूप से नहीं खुला था, इसलिए दैनिक का महत्व जो भी था, जैसा भी था वह स्थानीय पत्रों से ही चल रहा था। ऐसे में निश्चित रूप से कुछ लोग मुखी जी के ‘भारत-दर्शन’ अखबार के नियमित पाठक थे और उनके सम्पादकीय ‘वर्तमान विवेक’ को ध्यानपूर्वक पढ़ते और उस पर अपनी प्रतिकिzया भी जताते थे। रही-सही कसर मुखी जी स्वयं दिनभर अनेक लोगों से मिलकर अपने समाचार-पत्र सहित अन्य हालात का भी ब्यौरा एकत्रित कर लेते थे। उनमें एक बड़ा गुण या आज के हिसाब से अवगुण था कि वे लिखने में अत्यधिक स्पष्ट और सीधा वार करने में विश्वास रखते थे। जैसे कि नगर के प्रशासन के खिलाफ लिखना हो या तत्कालीन काम्पलेक्स अथवा नगर निगम के खिलाफ तो वे सीधा नाम लेकर भी लिख देते थे जिससे उसका प्रभाव दिनभर अपना रंग दिखाता रहता था, कभी हक में और कभी विरोध में, उसकी चर्चा बनी रहती थी।
उन्हें अकसर चाचा के नाम से लोग पुकारते और संबोधित करते थे वहीं कुछ चालाक लोग भी उनकी बार-बार तारीफ करके उन्हें चढ़ा भी देते थे। लेकिन आज उनके वे अंदाज और तरीके याद आते हैं कि जब वे अपनी फक्कड़ व अक्खड़ तबीयत के कारण अपनी बात कहे बिना नहीं रुकते थे फिर चाहे उसके लिए कितना ही संकट क्यों न पैदा हो जाए।
संयोग से हरियाणा के तीनों लालों - बंसीलाल, देवीलाल और भजनलाल के मुख्यमंत्रित्व काल में अकसर ऐसे प्रसंग आये जब उन्होंने जमकर उनके खिलाफ लिखा और उसके लिए पाठकों की खूब सराहना पाई और कभी-कभी मुख्यमंत्रियों से भी। तत्कालीन मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता और ओमप्रकाश चौटाला के साथ लिए गए सरसों के साग का स्वाद का जिक्र तो वे कई बार अखबार में भी कर देते थे।
मुखी जी ने अपनी कलम को न रुकने दिया और न ही झुकने। वे सीमित साधनों के कारण टूटते तो अवश्य रहे लेकिन कभी जाहिर नहीं होने दिया और न ही अपने स्वाभिमान को कभी गिरवी रखने जैसा कदम उठाया। बहुत से मौके आये जब लोगों जिनमें प्रशासन, उद्योगपति, राजनेता और समर्थक भी शामिल रहे, ने उन्हें झुकाने की कुचालें चलीं और मजबूर भी किया मगर वे भी पुराने उस्ताद की तरह किसी न किसी का सहारा लेकर मैदान में डटे रहे और दूसरे को पीछे हटाकर ही माने। अलबत्ता ऐसे भी अवसर आए जब उनके मित्र के विरोध में प्रशासन ने कोई गलत कदम उठाया तो मुखी जी ने आगे बढ़कर उस मित्र को भरसक सहयोग देकर अनिष्ठ से बचाया।
हालांकि यह बात वे कई बार कहते थे कि उनके अखबार के लिए तत्कालीन गृहमंत्री और बाद में प्रधानमंत्री बने चौधरी चरण सिंह ने उनसे उनके अखबार का नाम मांगा लेकिन उन्होंने इसके लिए साफ मना कर दिया। बाद में चौधरी चरण सिंह ने ‘असली भारत’ के नाम से वह अखबार निकला लेकिन उसका प्रचार-प्रसार कहां हुआ, कहां नहीं उसका ज्यादा पता नहीं लगा। मगर इतना अवश्य है कि जब ‘दैनिक जागरण’ का फरीदाबाद से जुड़ाव शुरू हुआ तो प्रसिद्ध मीडिया कर्मी कमलेश्वर को संपादक बनाया गया और उन दिनांे कमलेश्वर जी ने मुखी जी के ‘ताई बोल्यी’ स्तंभ के आधार पर मुझे भी दिनेश कौशिक ‘नीरद’ के माध्यम से इसी तरह का हरियाणवी व्यंग्य लिखने का दायित्व सौंपा जिसका प्रादुर्भाव ‘सरतू-भरतू’ के रूप में ‘दैनिक जागरण’ के हरियाणा संस्करण में प्रगट हुआ और स्वयं मुखी जी ने भी अन्य लोगों के साथ उसे सराहा और आशीर्वाद दिया। इतना बताने का आशय केवल यही है कि मुखी जी की प्रतिभा को कमलेश्वर जैसे दिग्गज और महारथी पत्रकार ने पहचाना, जिसे यहां के लोग केवल मनोरंजन का साधन मान रहे थे वह पत्र कई बार संसद तक जाकर भी अपना महत्व दर्शा चुका था।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन पर 14 नवंबर, 1964 से अपना अखबार शुरू करने वाले भीमसेन प्रभाकर मुखी अपनी कलम के जोर से अंतिम क्षण तक यहां-वहां चर्चा में बने रहे यही उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी सम्पदा है जिसके कारण वे यहां के उद्योगपति टीएम ललानी जैसे साहित्यिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व के निकट रहे और ओमप्रकाश ‘लागर’ जैसे शायर के चहेते भी बने रहे तो अमर साहनी की पत्रकारिता के प्रतिद्वंद्वी रहे और विधायक बने कुंदनलाल भाटिया और ए.सी. चौधरी से भी दो-दो हाथ करते रहे। आज वे हमारे साथ नहीं हैं तो ऐसे में उनका वह साहसिक और विलक्षण ‘वर्तमान विवेक’ उन्हें कभी भूतकाल में नहीं जाने देगा बल्कि सदा ही वर्तमान में रखेगा और उनकी शेष अनेक रोचक एवं रहस्यपूर्ण तथा विरोधियों से लोहा लेने वाली वार्ताएं फिर कभी अवसर मिलने पर आप सभी के साथ बांटेंगे, आज तो चाचा से केवल इतनी ही शिकायत है कि वे हनुमान ¼मेयर अशोक अरोड़ा½ सरीखे अपने अनेक भतीजों की आंखों में आंसू छोड़कर विदा हो गए।
जाने वाले कभी नहीं आते
जाने वालों की याद आती है।
- जय भगवान गुप्त ‘राकेश’

Ajit Sharma