Thursday, August 22, 2013

यह क्या कह दिया नेता जी!

जुबान फिसल जाने का मुहावरा भी है और कभी-कभी मौका भी माना जाता है, जैसे विवाह या त्यौहार के अवसर पर व्यंग्य बाण चलाते हुए हंसी-ठिठोली का आम रिवाज है। उस अवसर पर कही गई बातों का न तो बुरा माना जाता है और न ही उसे दुभार्वनापूर्ण कहा जाता है। 
लेकिन ऐसे किसी भी अवसर के अभाव में अचानक कतिपय बड़े नेताओं द्वारा ऐसी बात कह देना निश्चय ही चिंता का विषय बन जाता है और ऐसा ही एक विषय स्वनाम धन्य एक बड़े नेता ने कुछ दिन पहले ही कहकर चौंकाने के साथ-साथ सोचने पर भी विवश कर दिया है। कहने वालों में उन्हीं के दल के अन्य शीर्षस्थ नेताओं ने भी उनकी बात पर बिना ध्यान दिये बल दिया है और वह शब्द है ‘काँग्रेस मुक्त भारत’। 
राजनीति में सत्ता पाना या खोना एक स्वभाविक प्रक्रिया है, जब भी एक या दो अथवा कई राजनीतिक दल सत्ता का पत्ता पाने को चुनाव लड़ते हैं तो उसमें हार-जीत की संभावना सदैव बनी रहती है जिसे बहुमत मिलता है वह सत्ताधीश हो जाता है और शेष विपक्ष की शोभा बढ़ाते हैं।
लोकतंत्रा में यह स्थिति हर बार चुनाव के पश्चात आती है और चुनाव परिणाम को जनादेश मानते हुए सभी दल शिरोधार्य करते हैं। किन्तु अबकी बार दल विशेष के एक उभरते हुए और चुनाव प्रचार के शीर्ष पर विराजमान किये गये नेता ने एक ऐसा जुमला ईजाद करके उसे चुनावी अखाड़े में लहरा दिया है जिसका अर्थ या तो वो जानबूझकर गलत लगा रहे हैं अथवा दूसरों के ज्ञान की परीक्षा लेना चाह रहे हैं।
जी हां, उनके शब्द ‘काँग्रेस मुक्त भारत’ का यह उदघोष कितना ठीक और सटीक है यह बहस का विषय तो नहीं अलबत्ता अज्ञान अथवा चिंतन का विषय अवश्यमेव है, क्योंकि अभी पिछले दिनों ही पोलियो के संबंध में उन्मूलन अभियान के अंतर्गत पोलियो मुक्त भारत का नारा दिया गया था। हो सकता है नेता जी ने इसी से प्रभावित होकर इसमें संशोधन करते हुए पोलियो की जगह अपने राजनीति में धुर विरोधी दल का नाम जोड़कर वाहवाही लूटने की कोशिश की है। किन्तु अत्यंत खेद की बात है कि जिस बात को भारतीय संस्कृति में कभी दुश्मन के लिए भी अनुपयुक्त माना गया है वह सत्ताधारी दल के लिए क्या समझकर प्रयोग कर दिया, यह समझ से परे की बात है। पाकिस्तान समेत दुश्मन देशों के लिए भी कभी ऐसा नहीं कहा गया कि संसार उनसे मुक्त हो जाये, अर्थात जो बात शत्रु के लिए भी ठीक नहीं मानी जाती वही बात एक ज्ञानी-ध्यानी नेता द्वारा सवा सौ करोड़ के देश में सवा सौ वर्ष से भी अधिक पहले की स्थापित काँग्रेस पार्टी के लिए यह कह देना कि ‘काँग्रेस मुक्त भारत’ का अभियान चलाया जाए और जनता उसमें सहयोग दे सरासर संकीर्णता और शत्रुता की भावना ग्रसित है तथा किसी भी प्रकार से न तो सुनने योग्य है और अपनाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। हां, परमात्मा अगर सदबुद्धि दे तो ऐसे उदघोष को वापिस लेकर क्षमा-याचना सहित उसे दुरुस्त करके उसका उपयोग किया जाए तो भी गनीमत ही मानी जाएगी जैसा कि हमारे यहां कहा जाता है कि सुबह का भूला शाम को भी घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते और वाकई जुबान फिसलने वाली बात समझकर शायद दूसरा दल भी दर-गुजर कर सके तो भी इसे राजनीति में एक स्वस्थ वातावरण को बनाए रखने का सदप्रयास ही माना जाएगा, वरना जिसने लटठ  बजाने की ही ठान रखी हो तो उसके लिए तो पानी किधर से भी आए वह तो कटिबद्ध रहता है उसके शुभारंभ के लिए, लेकिन ईश्वर से प्रार्थना है कि उस घड़ी से तो इस देश को राम बचाये।

Wednesday, July 24, 2013

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का

आप सभी ने यह शे’र अक्सर सुना होगा जिसे हर बार उस वक्त दोहराया जाता है जब कोई अजूबा हो जाए यानी बात टनों की और हालात मनों के भी ना हों, तब कहा जाता है
‘‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो काटा कतरा ए खूं न मिला’’।
ठीक वही हाल आजकल हमारी राजनीति और राजनेताओं का हो रहा है जो एक लफ्ज बोलते हैं और सौ शब्द तोलते हैं। यानि पहले के द्वारा कुछ कहे को देर नहीं होती और सुनने वाले उसे तिल का ताड़ बनाने में जरा भी देर नहीं करते। राई का पहाड़ बनाना हो तो किसी इंजीनियर के पास जाने की जरूरत नहीं, हमारे नेताओं की जुबान काफी है। किसी की जीभ से एक पिल्ला कार के नीचे आने की बात फिसली तो यारों ने उसे खींच-खींचकर चीन की दीवार बना डाला। अरे अगर इतनी ही लंबाई बढ़ानी थी तो आज तक उन मानव हितैषी योजनाओं की क्यों नहीं बढ़ाई जो अब तक के अमीरी-गरीबी के बढ़ते हुए अंतर की खाई को पाट देती।
जिस देश में एक घंटे का मिड-डे-मील भी बिना किसी अड़चन के ठीक प्रकार खिलाया नहीं जा सकता वहां और उम्मीद क्या की जा सकती है। और जहां इसमें भी हमें विपक्ष की साजिश नजर आती है तो चूल्लु भर पानी की भी इस देश में इतनी कमी हो गई है कि वह किसी को नजर नहीं आता, न पक्ष को, न विपक्ष को। या वे भी सभी उस मुख्यमंत्राी की तरह हो गए हैं जिसे अपना प्रचार करते वक्त अपनी ही पार्टी द्वारा घोषित भावी पीएम जैसा कद~दावर नेता को ना देखना याद रहा और न ही दिखाना, क्या अनुशासन है? बलिहारी जाएं दल हो तो ऐसा और अनुशासन हो तो, तो भी ऐसा, जहां अध्यक्ष, पार्टी नेता और प्रतिपक्ष नेता सभी को दरगुजर कर बाहर की संस्था के अध्यक्ष की डांट से मसला हल होता हो।
क्या ऐसी ही प्रतिबद्धता अपे कर्तव्यों और निष्ठा अपने लक्ष्य के प्रति सीखने और सिखाने को मिलेगी नई पीढ़ी को। सत्तर साल का अनुभव और कार्यकौशल क्या केवल इसीलिए है कि पार्टी अध्यक्ष की घोषणा को मुंह से न बोलकर अपने त्यागपत्रा द्वारा मलियामेट कर दी जाए। क्या महत्वाकांक्षा की पूर्ति का यही तरीका और सलीका सीखा और सिखाया गया है कि जहां कहने से बात न बने वहां सहने की बजाय दाल-भात में मूसलचंद रहने की प्रकिzया अपनाई जाए और उस पर भी तुर्रा ये कि हम बहुत वरिष्ठ और तपोनिष्ठ हैं।
और जब कzोधवश उठाये कदम ने दुर्वासा रिषि की भांति एक बार सब कुछ नष्ट-भzष्ट होने को था तो फिर कृष्ण की भांति एक ही डांट से क्यों सकपका गए। फिर वह सारा पराकzम और अनुभवजन्य वरिष्ठता किस द्वार में समा गई? बहरहाल, सही किया जो भी किया शायद यह जनता भूल गई थी कि यह राजनीति भी  एक रंगमंच है और यहां हरेक को देर-सवेर अपना जौहर दिखाकर ही मंच पर कायम रहने का उपाय घुट~टी में पिलाया गया है, फिर चाहे कोई हजारे बनकर निष्पक्ष रूप से जनता के मोक्ष के लिए सदाचार की टोपी पहनकर अपना नाटय रूप निभाये अथावा संन्यासी बाना पहनकर रामलीला करे और मौका मिलते ही नारी छवि धारण कर पलायन में ही जीवन प्राप्त करे या फिर चिर कुमार बनकर लोगों की विशाल भीड़ एकत्रिात करके रामायण और महाभारत की महान विभूतियों के सम्मोहन और संबोधन द्वारा मानव देह की आरोग्यता को चिरस्थायी बनाने के लिए अदृश्य सम्पत्ति के फलस्वरूप मंत्रा दान दे और तंत्रा का सहारा ले नये शहर में पुन: महाकल्याण की घोषणा करे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार महाराज युधिष्ठिर ने रथ पर बैठकर दzोणाचार्य की मृत्यु की खबर सुनाई मगर उनके संकटमोचक द्वारा शंखनाद कर उसे जनता को नहीं सुनने दिया गया।
जो भी हो अच्छा हुआ, अब तो आम जनता को यह पता लग ही गया है कि देश में कुछ दल और कुछ नेता सिर्फ इसी जुगाड़ में रहते हैं कि कब उनका और केवल उनका ही नाम सर्वोच्च पद के लिए घोषित हो और कब वे उसके अनुरूप आकर्षक साज-सज्जा धारण करके सजे-सजाये रथ पर सवार होकर किसी भी यात्राा के नाम अपना अभियान चालू करें और जनता से किसी न किसी बहाने उसकी कीमत भरपाई करने के लिए कहें।
सच यह है कि चाहे कोई भी अभियान हो, रथ यात्राा हो, बंद हो अथवा राजनीतिक द्वंद्व हो भुगतना जनता को ही पड़ता है और यही कारण है कि हर पांच साल बाद एक ही बार लुहार की चोट करने वाली जनता अब भलीभांति समझ चुकी है कि उसे कब जागृत होना है, कब करवट बदलनी है, कब उबासी लेनी है और कब खड़े होकर अपना निर्णय सुनाना है। तब तक हमारे ये महान नेतागण चाहे टीवी, रेडियो और वीडियो कान्फzेंस में तरह-तरह के कोण बनाकर अपनी छवि कितनी भी निर्मल और चमकदार बना लें लेकिन जब जनता फेसबुक पर अंतिम निर्णय अंकित करेगी तब यही शेर जिससे हमने आज का यह लेख शुरू किया था फिर उभरकर सामने आएगा जो इसी सत्य को पुन: उजागर करेगा -
‘‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो काटा कतरा ए खूं न मिला’’

Wednesday, May 1, 2013

गायकी के शहंशाह मन्ना डे


भारतीय फिल्म जगत के पाश्र्व गायक मन्ना डे आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। सभी जानते हैं कि 100 साल पूरी कर चुका फिल्म उद्योग के प्रारंभिक सितारों को आवाज देने वालों में मन्ना डे का भी अहम स्थान है। अपने चाचा के.सी. डे के गाये हुए भजनों को सुनकर बड़े हुए प्रबोध चंद डे - असली नाम - को भी गाने की इच्छा जागी और अपने चाचा से ही गायकी की तकनीक सीख कर गायन शुरू करने वाले मन्ना डे साहब आजकल कोई गीत नहीं गा रहे हैं जबकि अपने समय में उन्होंने गायकी की कोई भी विध ऐसी नहीं छोड़ी जिसमें उन्होंने महारत हासिल न की हो या अपना सिक्का न जमाया हो।
शुरू के गीतों में उन्होंने ‘देख कबीरा रोया’ फिल्म में अनूप कुमार को अपनी आवाज देकर ‘कौन आया मेरे मन के द्वारे’ उसे भी अमर कर दिया और खुद भी आज तक उस गीत के कारण अच्छा नाम पैदा कर लिया। राजकपूर के लिए उन्होंने फिल्म ‘चोरी-चोरी’ और फिल्म ‘श्री 420’ में लता मंगेशकर के साथ दोगाने तो गाए ही एकल गीत भी ‘दिल की बात सुने दिलवाला’ गाकर अभिनेता जाय मुखर्जी को भी अपना दीवाना बना लिया।
यूं मन्ना डे किसी एक की आवाज नहीं बने बल्कि जहां भी और जिस भी संगीतकार ने उन्हें अपने संगीत पर गाने का अवसर दिया या आजमाया वहां-वहां ही उन्होंने अपने फन के जौहर दिखाए और उनके संगीत में चार चांद लगाए। स्थायी रूप से जुड़ने वाले संगीतकारों एसडी बर्मन, सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन, ओपी नैययर, कल्याणजी-आनंद जी, हेमंत कुमार, मदनमोहन व रवि आदि के नाम प्रमुख हैं, लेकिन इसके अलावा भी उन्होंने अनेक नवागंतुक व इन्हीं संगीतकारों के सहयोगी रहे अनेक बंधुओं के लिए भी अपनी आवाज उसी शिददत और ईमानदारी से पेश की कि उनके द्वारा बनाई गई धुनें भी कामयाबी के साथ मन्ना डे के खाते में दर्ज हुईं।
यद्यपि मन्ना डे को अधिकतर शास्त्रय संगीत और भजन गाने वाले गायक के रूप में अधिक जाना जाता है, लेकिन इससे हटकर भी उन्होंने अनेक चुनौतीपूर्ण रचनाएं भी पेश की हैं और कुछ रचनाएं तो ऐसी गायी हैं जिनके लिए कहना मुश्किल हो जाता है कि उन रचनाओं ने मन्ना डे को प्रसिद्ध किया है, विख्यात बनाया है या मन्ना डे ने उन गीतों को गाकर अमर कर दिया है।
अभिनेता प्राण के लिए फिल्म ‘उपकार’ में मलंग के रूप में उनके द्वारा पेश किया गया मन्ना डे की आवाज में यह गीत ‘कसमे वादे प्यार वफा सब-बातें हैं बातों का क्या’ या फिल्म ‘जंजीर’ में ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी’ की अदायगी ने अभिनेता प्राण को स्थायित्व व अमरत्व प्रदान करने में महत्ती भूमिका निभाई है। इतना ही नहीं खलनायक से चरित्रा अभिनेता बनने का आधारभूत बिन्दू भी यही दो गीत हैं, जिसके बाद प्राण को विलेन के रोल कम और चरित्रा अभिनेता के रोल अधिक मिलने लगे।
प्रो. बलराज साहनी के लिए भी मन्ना डे ने फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में ‘धरती कहे पुकार के’ से लेकर फिल्म ‘एक फूल दो माली’ में ‘मेरा नाम करेगा रौशन जग में मेरा राजदुलारा’ और फिल्म ‘वक्त’ में तो मन्ना डे साहब ने साहिर लुधियानवी की दिलकश ‘ऐ मेरी जौहराजबीं’ गाकर उन्हें फिर से जवान बना दिया था। हास्य अभिनेता महमूद की तो मन्ना डे साहब मानो आवाज ही बन गए थे और एक-दूसरे के पूरक और पर्यायवाची हो गए थे। फिल्म ‘जिद~दी’ का ‘फिर क्यों जलाती है दुनिया मुझे’ अथवा फिल्म ‘नीलकमल’ का ‘खाली डब्बा खाली बोतल’ या फिल्म ‘चित्रालेखा’ का ‘कैसी जुल्मी बनाई तूने नारी’ या फिर फिल्म ‘औलाद’ का ‘जोड़ी हमारी जमेगा कैसे जानी’ जैसे अनेक गीत दोनों की फिल्मी टयूनिंग को आज भी पर्दे पर साकार करके वाहवाही लूटते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि फिल्म ‘पड़ोसन’ में महमूद, किशोर कुमार और मन्ना डे के अद~भुत करिश्मे ने ही ‘पड़ोसन’ को सदाबहार फिल्म का दर्जा दिलवा दिया। ‘इक चतुर नार करके सिंगार’ वाला गीत आरडी बर्मन के संगीत निर्देशन में इतना विस्मयकारी और चमत्कृत करने वाला है कि शादी-ब्याह के समारोहों में आर्केस्ट्रा वालों की ओर से इसकी प्रस्तुति एक विशेष उपलब्धि मानी जाती है और इसके बिना संगीत के कार्यक्रम फीके-फीके से लगते हैं।
पौराणिक और देशभक्ति के गीतों में मन्ना डे साहब का कोई सानी नहीं, वे लाजवाब हैं और चिरस्मरणीय भी। देश में जब भी राष्ट्रीय समारोहों का आयोजन होता है मन्ना डे साहब सबसे ज्यादा गूंजते हैं और पूरे देश में उनकी आवाज आकर्षण के साथ सुनी जाती है। फिर चाले फिल्म ‘तलाक’ का ‘ए भारत माता के बेटों’ वाला गीत हो या फिल्म ‘काबुलीवाला’ का ‘ए मेरे प्यारे वतन’ हो या फिल्म ‘बंदिनी’ फिल्म का वो गीत हो जो पं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु पूर्व का साक्षी गीत बन गया ‘मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे’।
कव्वाली और अलग तरह की विशेष विधा के गायन में भी मन्ना डे साहब ने अनेक कीर्तिमान बनाए हैं। ‘बरसात की रात’ फिल्म की ‘कारवां की तलाश’ वाली कव्वाली हो या फिर फिल्म ‘दिल ही तो है’ का ‘लागा चुनरी में दाग हो’ या फिर फिल्म ‘तीसरी कसम’ की ‘पिंजरे वाली मुनिया’ हो उनकी हर अदा दिलकश और नाज-ओ-अंदाज से इस कदर पुरलुत्फ होती है कि सुनने वाला अश-अश कर उठता है।
शास्त्रय गायन में तो उन्होंने एक अलग ही मुकाम बनाया था भले ही उन्होंने उसे मो. रफी के साथ फिल्म ‘रागिनी’ में ओपी नैय~यर के संगीत में या शंकर जयकिशन के साथ फिल्म ‘तीसरी कसम’ में मुकेश या फिर कल्याण जी आनंद जी के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘विक्टोरिया नं. 203’ में महेंदz कपूर तथा किशोर कुमार के साथ भी अपने जौहर दिखाए और गायकी के क्षेत्रा में नाम पैदा किया। फिल्म ‘तेरी सूरत मेरी आंखें’ में भी सचिनदेव बर्मन के निर्देशन में मो. रफी और मन्ना डे के गाये हुए गीतों में आज भी एक अघोषित और अदृश्य मुकाबला दिखाई देता है लेकिन जब निर्णय की बात आती है तो जज की कुर्सी पर बैठने वालों को यही कहना पड़ता है कि दोनों ही बेहद खूबसूरत और बेमिसाल हैं।
इसके अलावा भी मन्ना डे साहब के कुछ गायन वाकई बेमिसाल हैं, जैसे संगीतकार जयदेव के निर्देशन में डा. हरिवंशराय बच्चन की ‘मधुशाला’ और रौशन के निर्देशन में ‘नई उमz की नई फसल’ में मेघराज मुकुल की ‘सेनाणी’ तथा कपिल कुमार का गैर फिल्मी गीत ‘हंसने की चाह ने कितना मुझे रूलाया है’ आज भी मन्ना डे को अप्रतिम और लासानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। गोपाल सिंह नेपाली का ‘नरसी भगत’ का ‘दर्शन दो घनश्याम’ जो कि लगभग आज से 60 साल पुराना है और रवि के संगीत निर्देशन में हेमंत कुमार और सुधा मल्होत्रा के साथ मन्ना डे ने पेश किया है, आज भी उसी तरह ताजा और प्रभावशाली है, जिस तरह वह पहले उस वक्त जब यह गाया गया था। इस गीत की विशेषता यह भी है कि आस्कर अवार्ड विजेता फिल्म ‘स्लमडाग मिलेनियर’ में भी इसको पेश किया गया है।
संगीतकार वसंत देसाई तथा एसएन त्रिपाठी के संगीत निर्देशन में भरत व्यास रचित उन गीतों को जिसे मन्ना डे के स्वर ने ऐतिहासिक और अमर बना दिया है, जैसे ‘निर्बल से लड़ाई बलवान की’, ‘उमड़-घुमड़ कर आई रे घटा’ और फिल्म ‘नवरंग’ के संगीत निर्देशक सी. रामचंदz के लिए गाया गया गीत ‘छुपी है कहां’ को कौन भूल सकता है और दोबारा सुनने की चाह किसको नहीं होती। फिल्मी गानों के शौकीन लोग के.एल. सहगल की तरह मन्ना डे के गीतों के भी उतने ही दीवाने हैं।
संयोगवश फिल्म जगत का सर्वश्रेष्ठ दादा साहब फाल्के अवार्ड मन्ना डे को वर्ष 2007 में मिला तो अभिनेता प्राण को इसी वर्ष दिया गया है, जो वे 3 मई को प्राप्त करेंगे।

Friday, April 5, 2013

तुलसी कृत रामचरित मानस की लोकप्रिय सुक्तियां


आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व संत शिरोमणि महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना की थी जो उस समय के सभी रचनाकारों से अलग मानते हुए भगवान शिव द्वारा सत्यम् शिवम् सुंदरम् की मुहर लगाकर श्रेष्ठतम् कृति के रूप में प्रतिष्ठित हुई थी। इस ग्रंथ की महिमा का गान अनेक प्रकार से अनेक कथा वाचकों द्वारा तो किया ही गया है, साहित्य के क्षेत्रा में भी इसे अभी तक अनुपम और अद्वितीय माना गया है। सुलभ साहित्यिक अकादमी की पत्रिका ‘चक्रवाक्’ द्वारा अधिकृत उन 600 शोधार्थियों की सूची प्रकाशित की है जिन्होंने इस ग्रंथ का अध्ययन करके अपने द्वारा निर्धारित विषयों पर विभिन्न विश्वविद्यालयों से डाक्टरेट (पीएचडी) की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं।
इसके अतिरिक्त इस ग्रंथ का सर्वाधिक प्रभाव और महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि किसी भी विषय पर चर्चा के समय बड़े या छोटे समारोह में मानस की चौपाई उद्धृत किये बिना वह न तो पूरी मानी जाती है और न ही उसमें प्रामाणिक महत्व की उत्पत्ति हो पाती है।
आज की पहली सूक्ति हम लोकतंत्र के सबसे बड़े आधार मताधिकार पर चर्चित ऐसी चौपाई है जो आज भी सर्वाधिक चर्चा में रहती है, -
‘कोउ नृप होय हमें का हानि’
आप सभी को याद होगा कि यह उक्ति रामायण में दासी मंथरा द्वारा महारानी कैकई को अपने पुत्र भरत के लिए राजा दशरथ से राज्य मांगने हेतु उकसाते समय कही गई थी। आज भी लोकतंत्र में इस उक्ति का अर्थ सबसे अधिक इसलिए बढ़ जाता है कि जनता में जनता द्वारा ही राजा का चुनाव किया जाता है न कि राजशाही परंपरा के अनुसार वंश के अधिकार के अनुसार। यह सभी जानते हैं कि राजा दशरथ द्वारा राम को राजतिलक किये जाने की घोषणा की जा चुकी थी और उसकी तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं, जब मंथरा ने अपने दिमाग की इस कुत्सित भावना का पूरे का पूरा ज्वार महारानी कैकई के दिल-ओ-दिमाग में भरने का प्रयास करते हुए असफल रहने पर अंतिम बाण के रूप में इसका प्रयोग किया।
और यह प्रयोग ऐसा सफल सिद्ध हुआ कि मंथरा भी चकित रह गई। इस संबंध में राष्ट्र कवि स्व. मैथिलीशरण गुप्त ने भी अपने महाकाव्य ‘साकेत’ में महारानी कैकई के पश्चाताप दर्शाते संदर्भ में बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है :
"क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी,
मेरा ही मन रह न सका निज विश्वासी।"
और वास्तव में दासी मंथरा का चलाया हुआ बाण इतना सटीक कारगर सिद्ध हुआ कि रानी कैकई का âदय जो इससे पहले तक टस से मस न होते हुए केवल राम और दशरथ के ही गुणगान में जुटा था, इतनी सी बात से कि "चेरी छांड़ि ना होउ रानी" अर्थात् देख लो रानी मैं तुम्हारे ही हित की बात कर रही हूं वरना मुझे क्या है? कोई भी राजा बने यानि राम या भरत मुझे तो कोई फर्क पड़ना नहीं है क्योंकि मैं तो दासी की दासी ही रहूंगी।
इस बात का रानी कैकई के दिल पर भी इतना तेज असर हुआ कि उसने उस पर पूरा विश्वास कर लिया कि वास्तव में ही यह दासी तो मेरे ही हित की बात कर रही है क्योंकि भरत के राजा बनने पर भी ये तो दासी ही रहेगी लेकिन मैं (कैकई) राजमाता बन कहलाउगी और उसके बाद का हाल हम सभी जानते हैं।
इस तरह की अनेक प्रसंगों से संबंधित रामचरित मानस की अर्धालियां अर्थात् चौपाई अलग-अलग रंगों और बिम्बों को व्यक्त करते हुए हमारी दैनिक गतिविधियों को प्रभावित करती चलती हैं। ऐसा ही एक अन्य प्रसंग तुलसीदास जी ने जनकपुरी का प्रस्तुत किया है, जिसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है, क्योंकि उन्होंने अवधी भाषा में रचित ये चौपाइयां निश्चय ही अनुपम और अद्वितीय बनी हैं, जैसे -
"गिरा अनयन नयन बिनु वाणी" 
अर्थात् वाणी देख नहीं सकती और नयन बोल नहीं सकते। तो फिर ईश्वर के उस रूप का वर्णन कैसे या किस प्रकार हो जिसे देखकर नयन और वाणी दोनों ही प्रभावित हो रहे हैं।
ऐसे ही एक अन्य प्रसंग में जब जनकपुरी में अवध के दोनों राजकुमार (राम और लक्ष्मण) भ्रमण के लिए निकले हैं और पूरा शहर उन्हें देख-देख कर अपने-अपने शब्दों में उनकी मोहक और आनंददायक छवि का दर्शन लाभप्राप्त करके वर्णन करने का प्रयास कर रहे हैं, तब तुलसीदास जी ने केवल सोलह मात्रा की एक ही चौपाई में इतना प्रभावशाली काव्यांश रचकर इतिहास बना दिया - "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।" 
और चमत्कार यह है कि इतनी बड़ी बात इतने सरल शब्दों में व्यक्त करते हुए न तो कहीं मात्रा भंग हुई और न ही कहीं शाब्दिक दोष पैदा हुआ।
धन्य हैं बाबा तुलसीदास और उनकी वह लेखनी जिससे उन्होंने इतने महान् ग्रंथ की रचना संपूर्ण करते हुए लिखा -
"हरि अनंत हरि कथा अनंता।"