Friday, January 6, 2012

अन्ना जी असलियत को भी देखें

फरवट फरीदाबादी
नि:संदेह अन्ना हजारे और उनकी टीम देश से भzष्टाचार मिटाने के संकल्प को लेकर बहुत अच्छा काम कर रही है और वह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सफल भी हो रही है लेकिन अपने मिशन के प्रति इतना अतिरेक भी अच्छा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनका बार-बार यह कथन कि अगर लोकपाल बिल पास हो गया होता तो श्री कुशवाहा और पहले श्री चिदंबरम आज जेल में होते।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर जो जेल में जा चुके हैं जैसे सुरेश कलमाड़ी, ए. राजा, कनिमोझी और 2जी घोटाले में जेल जाने वालों मंे एक लंबी फेहरिस्त है तो वे किस एक्ट के अंतर्गत जेल गये हैं क्योंकि लोकपाल बिल तो पास ही नहीं हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि देश में भzष्टाचार को मिटाने, घटाने, हटाने या उसके अंतर्गत उसको रोकने के लिए कानून तो यथार्थ और कारगर हैं कमी अगर है तो वह उन्हें इस्तेमाल करने वालों की है।
लोकपाल बिल पास न होने के लिए अन्ना और उनकी टीम भी उतनी ही जिम्मेवार है जितना की राजनैतिक दल और सत्तारूढ़ सरकार। कारण, अभी लोकपाल बिल बनना शुरू नहीं हुआ कि अन्ना और उनकी टीम ने रोज कोई न कोई तूफान राजनेताओं पर बरपाये रखा और बार-बार एक नई बात जोड़कर आंदोलन बढ़ाते गये। सवाल यह था कि जब लोकसभा के सत्र की तारीख निश्चित हो गई थी तो उससे पहले आंदोलन शुरू करना कहां की अक्लमंदी थी। इसकी बजाय अगर उन्होंने राजनैतिक दलों को अपने विश्वास में लिया होता तो वह अधिक कारगर और व्यावहारिक होता। उल्टे रोज-रोज धमकी देकर देश में चिंतन का वातावरण खराब करते रहे और जो भी सामने आया उसे ही धमकाते रहे, परिणाम सामने है कि बिना लोकपाल बिल पास हुए भी नेतागण और अपराधी लोग जेल जा रहे हैं और भार्श्ताचारी रोज पकड़े जा रहे हैं और सीबीआई जो केवल सरकार के अधीन बताई जाती है वह भी खूब सक्रिय है।
उधर, सत्तारूढ़ दल के पास इस समय तीन संसदीय कार्यमंत्री हैं श्री पवन कुमार बंसल और दो उनके सहयोगी श्री हरीश रावत और अभी पिछले दिनों मंत्रिमंडल में शामिल श्री राजीव शुक्ला, लेकिन तीन-तीन व्यक्तियों ने अपना होमवर्क शायद ठीक से पूरा नहीं किया या यूं कहिये कि उन्हें इतना अनुभव ही नहीं वरना बिल की यह हालत न होती जबकि वह लोकसभा से अच्छे बहुमत से पारित हुआ था। राज्यसभा में तो उसे केवल अनुमोदित ही किया जाना था वहां पर इतनी बड़ी लंबी-चौड़ी बहस का प्रावधान ही नहीं होना चाहिए था। खैर, अब विश्वास किया जाना चाहिए कि ये लोग भी इससे सबक लेते हुए भविष्य में सावधान रहेंगे और अपनी पिछली कमियों तथा बिल के विषय में जो अब पुन: लोकसभा में पहले पास कराना होगा तभी राज्यसभा में जायेगा, के लिए पहले से ही चौकस रहना सीख लेंगे। राज्यसभा में श्री राजीव शुक्ला द्वारा बयान दिया जाना भी बिल्कुल अजीब-सा था और अनावश्यक तो था ही, अप्रत्याशित भी था। पता नहीं क्या सोचकर उन्हें समय दिया गया जबकि यह बिल तो था ही सरकार की ओर से जिसके लिए वहां पहले से प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और संसदीय कार्यमंत्री श्री बंसल पहले से ही उसे रख चुके थे ऐसे में उनके द्वारा उसकी वकालत करना या उस पर अधिक बोलना जंचा नहीं और न ही तर्कसंगत कहा जा सकता है। बाद में संसदीय कार्य राज्यमंत्री श्री शुक्ला की भाषा को लेकर भी विपक्ष के अनेक सदस्यों ने कई आपत्तियां भी उठाईं और तीखे कटाक्ष भी किये। जाहिर है इस तरह की अनावश्यकता को टाला जा सकता था या किसी और वरिष्ठ नेता से वह सब कहलवाया जा सकता था जिसके लिए व्यर्थ में ही सत्तापक्ष को बगले झांकनी पड़ीं।
बहरहाल, अब सरकार ने इसे बजट के बाद पारित कराने को कहा है तो तब तक के पर्याप्त समय में आशा की जानी चाहिए कि सरकार अब हर कदम सोच-समझकर उठायेगी और अंतोगत्वा इसे पास भी करा लेगी क्योंकि तब तक अन्ना टीम का भी उत्साह शिथिल हो चुका होगा और लगभग देश की जनता भी काफी हद तक इसे भूल चुकी होगी। मतलब इतना हो-हल्ला तब नहीं होगा। वैसे लोकपाल बिल के बारे में एक बहुत बड़ा और दुष्प्रचार किया गया कि यह पिछले 42 सालों से पेश ही नहीं किया गया, विचार ही नहीं हुआ, बना ही नहीं लेकिन अब जो तथ्य सामने आये हैं उनके अनुसार यह बिल सन 1968 से लेकर 2011 तक नौ बार संसद में रखा गया। यह बात अलग है कि इस पर इतनी सार्थक बहस अथवा कार्यवाही नहीं हो पाई हो लेकिन इसके कारण दो-तीन बार सरकारें जरूर धराशायी हुई हैं।
एक बात और जो और भी अधिक महत्वपूर्ण है, जिसके लिए श्री अन्ना हजारे और उनकी टीम अत्याधिक आशांवित है वह यह है कि हमारे यहां दल-बदल विरोधी कानून 1984 में श्री राजीव गांधी की सरकार द्वारा पूर्ण बहुमत और एक स्वर से पारित कराया गया था तो क्या देश से दल-बदल का कलंक मिट गया है, खत्म हो गया है अथवा नेस्तनाबूद हो गया है, जी नहीं। न मिटा है, न घटा है, न हटा है वह भी भzष्टाचार की भांति अभी तक वहीं की वहीं डटा है बल्कि जितने भी उपाय किये गये उन सबका मुंह चिढ़ाता हुआ कुछ और Åपर ही उठा है, यकीन न हो तो हरियाणा में देख लीजिए, यहां भी कम दिखता हो तो उत्तर प्रदेश को ले लीजिए जहां एक ही दिन में कोई भी समर्थ और दमदार राजनेता यहां से वहां और वहां से चाहे जहां जाने में कुछ भी देर नहीं लगाता और न ही कोई दल इस बात के लिए चिंतित दिखाई दिया कि उस पर कल को दल-बदल को बढ़ाने का आरोप लगा तो वह क्या जवाब देगा।
ऐसा लग रहा है कि खुली मंडी सजी हुई और उसमें बोलियां लगाई जा रही हों और जिसको जो भावे वो उधर जावे या जो पहले गलत गया हुआ हो वह फिर इधर आवे, सब सुविधापूर्वक और सहजता से ऐसे हो रहा है जैसे कोई न तो कानून हो और न ही कोई नियम, आचार संहिता तो शायद आजकल वापस शब्दकोश में जा छिपी हो, ऐसे में कौन और किसको कोई हिदायत, शिकायत दे या करे भी तो किस मुंह से और कौन-से कानून के तहत।
ऐसे में कवि भरत व्यास द्वारा एक फिल्म में लिखे गये गीत के कुछ अंश याद आते हैं जो देश की दशा को दर्शाते हैं, यह कविता गांधी जी को संबोधित है, कवि कहता है -
‘प्रांत प्रांत से टकराता है भाषा पर भाषा की लात।
तू गुजरात मैं बंगाली कौन करे भारत की बात।।
तेरी बकरी ठगों ने ठग ली तेरी लाठी ले गये चोर।
मैं भी राजा तू भी राजा चारों ओर मचा है शोर।।’
शायद चुनाव आयोग ने निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव करवाने के लिए इसे उत्तर प्रदेश में सात चरणों में योजना बनाई थी लेकिन जिस हिसाब से वहां शोर और धींगामस्ती का माहौल बना हुआ है उससे तो लगता है कि वहां इसे चाहे 14 चरणों में भी लागू करते तब भी यही हाल रहना था। ऐसे में नाम के उत्तर प्रदेश मगर असल में सबसे अधिक प्रश्न प्रदेश बना यह राज्य अब किस तरह से यह सब चुनाव संपन्न करायेगा और दल-बदल विरोध के कानून को कितने तीर झेलने पड़ेंगे और इसके बाद सत्तारूढ़ होकर कौन-सा दल उभरेगा यह तो केवल अब चार मार्च को ही मतगणना के बाद जाहिर होगा तब तक के लिए सबको ही एक ही आसरा है और वह है -
‘समझ झरोखे बैठ के जग का मुजरा देख।
जाको भी कहिये जरा उसका मुंह उतरा देख।।’
आइये ! हम भी तब तक जरा कोई और जरूरी काम ही निपटा लें, कम से कम हर पल की चिल्लपौ से तो जान सांसत में नहीं आयेगी।

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