Wednesday, February 2, 2011

नेताओं की दोमुहीं नीति


व्यंग्य

आज तो सुबह-सुबह उठते ही कबीर दास जी याद आ गये जिन्होंने पद लिखा - ‘मोहे सुण-सुण आवे हांसी, जल विच मीन प्यासी’ या ‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी’।
वास्तव में ही भगतजी ने सांसारिक पुरुषों को इसीलिए चेताया कि वे स्वार्थवश अंधे होकर जिसके पीछे लग जाते हैं उसे सांस भी नहीं लेने देते और अपनी ओर कभी देखते भी नहीं क्योंकि कबीर ने यह भी लिखा है -‘बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय’। मगर हम जिन लोगों की बात कर रहे हैं वे अपनी ओर तो शायद ही देखते हों वरना तो सदा उनका वार दूसरे पर ही रहता है। या तो इस्तीफा मांगते हैं वरना आमतौर पर सीबीआई का टेस्ट लेते रहते हैं और उसकी जांच की मांग बहुत करते हैं। अभी ताजे केस में एक आईएएस अधिकारी केंदzीय पद पर नियुक्त हुए और उसी समय से उसकी बखिया उधेड़ते हुए उसे हटाने और हटवाने के अभियान में जुटे हुए नेतागण दलील देते हैं कि उन पर कोई आरोप लगा हुआ है।
हमारे जनप्रतिनिधि यह नहीं जानते कि उन लोगों पर कितने आरोप सिद्ध हो चुके हैं लगने की तो बात छोड़िये। मगर वे अपनी बारी कोई कुर्सी छोड़ते ही नहीं बल्कि यह कहते हैं कि अभी कोर्ट में केस चल रहा है अंतिम निर्णय नहीं हुआ है, इसलिए उन्हें कुर्सी छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। और बिना कुर्सी छोड़े ही वे आज तक बराबर जनप्रतिनिधि जैसे पार्षद, विधायक, सांसद और एमएलसी इत्यादि पदों पर बराबर हक जमाये हुए हैं और अंगद के पांव की तरह हिलने का नाम ही नहीं लेते। जबकि एक बेचारा अधिकारी अगर कहीं आरोपित हो गया है तो उसे ये नेतागण किस मुंह से इतनी जल्दी हटा देना चाहते हैं जबकि वह भी यही दुहाई देता है कि वह इस आरोप में क्लीन चिट प्राप्त कर चुका है। अत: उसके इस्तीफा देने का न तो कोई औचित्य है और न ही कोई सवाल पैदा होता है।
पाठकों को याद होगा कि ऐसे ही एक प्रदेश के बड़े माननीय और सम्मानीय अति प्रसिद्ध पूर्व मुख्यमंत्री नेताजी को एक आयोग ने क्लीनचिट दी थी भzष्टाचार के मामले में और विरोधीगण उसके बाद भी उन्हें यही कहकर चिढ़ाते रहे कि अगर वह भी ईमानदार हैं तो फिर बेईमान का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
यह कैसी नेताओं की दोमुंही नीति है या दादागिरी है कि आप तो सबकुछ माफ मानते हैं और दूसरे के लिए इशारा भी हो जाए तो फौरन पद छोड़ो और सीबीआई को याद करने लगते हैं।
देश के समाचार-पत्रों में कई बार प्रकाशित हो चुके आंकड़ों के अनुसार आज देश में हर राजनीतिक दल के 25 से 50 प्रतिशत नेतागण कहीं न कहीं कभी न कभी ऐसे-ऐसे आरोपों में घिर चुके हैं जिनमें जमानत भी नहीं होती लेकिन अदालत में मामले विचाराधीन होने के कारण उनके लिए सभी जगह छूट है चाहे कुर्सी का सवाल है, चाहे मंत्री पद की बात है अथवा कहीं चेयरमैन बनाये जाने का सवाल है। देश की जनता जानना चाहती है कि यह दो तरह के चलन प्रचलन में क्यों हैं। क्या जनप्रतिनिधि उस आईएएस अधिकारी से अधिक उत्तरदायी है जो देश की प्रशासनिक बागडोर संभालता है या सिर्फ इसलिए कि वह एक राजनैतिक दल के प्रभावशाली नेता हैं इसलिए वे जिसे चाहें, जब चाहें हटवा सकते हैं चाहे आरोप सिद्ध हुआ है या नहीं।
जो भी हो कम से कम कानून के मामले में नेताओं को एक समान नीति अपनाते हुए पापी पर हमला करने के लिए पहला पत्थर उसे ही उठाना चाहिए जिसने कोई पाप न किया हो।http://www.blogger.com/

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