Monday, June 28, 2010

भाजपा को पुराने धुरंधरों का सहारा : नीरज कुमार दुबे

भाजपा को पुराने धुरंधरों का सहारा
नीरज कुमार दुबे

जसवंत सिंह की ९ महीने बाद भाजपा में ससम्मान वापसी तो हो गई लेकिन इससे यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या अब भाजपा जिन्ना मुíे पर जसवंत के रुख से इत्तेफाक रखती है? जसवंत जिस तरह जिन्ना मुíे पर अपने रुख पर अभी भी कायम हैं और भाजपा इस मुíे पर जिस तरह चुप है, उससे यही स्पष्ट होता है कि जिन्ना तो एक बहाना था, दरअसल भाजपा को लोकसभा चुनावों में हार के बाद मीडिया में लगातार हो रही अपनी किरकिरी से बचने के लिए किसी को बलि का बकरा बनाना था।
जसवंत इसलिए भी निशाने पर थे क्योंकि उन्होंने उन ‘खास’ लोगों पर लगाम कसने की मांग की थी जिनके हाथों में पूरे चुनाव का प्रबंधन था, जाहिर है उस शक्तिशाली वर्ग को जिन्ना के बहाने जसवंत पर निशाना साधने का मौका मिल गया। जसवंत ने जब चुनावों में हार के बाद पार्टी को आत्मविश्लेषण करने की सार्वजनिक रूप से सलाह दी थी तो यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे नेताओं के भी हौसले बुलंद हुए और उन्होंने भी मीडिया के माध्यम से पार्टी को कोसा और सलाह प्रदान की तब यह महसूस किया गया था कि जसवंत अनुशासनहीनता कर रहे हैं लेकिन उनकी वरिष्ठता को देखते हुए इस बात को नजरअंदाज कर दिया गया था लेकिन जिन्ना पर आधारित पुस्तक ने उनके खिलाफ कार्रवाई का मार्ग प्रशस्त कर दिया और गत वर्ष शिमला में आयोजित पार्टी की चिंतन बैठक में एकाएक जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया।
जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताना संघ को कतई मंजूर नहीं है और इस मुíे पर वह किसी को नहीं बख्शता। उसने तो पाकिस्तान में लालकृष्ण आडवाणी ने जब बयान दिया कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे, तब उनसे भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी छीन ली थी। जसवंत ने जब जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताते हुए पुस्तक लिखी तो भाजपा के शक्तिशाली गुट को संघ से यह कहने का मौका मिल गया कि उन्होंने विचारधारा के खिलाफ कदम बढ़ाया है। ऐसे में नागपुर से हरी झंडी मिलते ही जसवंत की पार्टी से रवानगी हो गई।
लेकिन जिस प्रकार ९ महीने के अंदर ही जसवंत सिंह को पार्टी में वापस ले लिया गया उससे साफ जाहिर है कि पार्टी ने तब जो गलती की थी उसे अब सुधार लिया है। बताया जा रहा है और खुद जसवंत सिंह ने भी कहा है कि पार्टी में उनकी वापसी के प्रयास आडवाणी ने शुरू किये। यह वही आडवाणी हैं जोकि उस बैठक में मौजूद थे जिसमें जसवंत को पार्टी से निकालने का निर्णय हुआ था। जसवंत ने आडवाणी के साथ लगभग चालीस वर्षों तक काम किया ऐसे में आडवाणी को जसवंत को पार्टी से निकालने का विरोध करना चाहिए था लेकिन खुद जिन्ना मुíे पर कार्रवाई का सामना कर चुके आडवाणी शायद उस समय इस मुíे पर दोबारा संघ से उलझना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने कुछ समय इंतजार करना उचित समझा।
जसवंत की पार्टी में वापसी की राह इस बात से भी आसान हो गई कि शुरुआती ना नुकुर के बाद उन्होंने पार्टी के कहने पर संसद की लोक लेखा समिति का अध्यक्ष पद छोड़ दिया था इसके अलावा पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने बेहद संयमित रवैया अपनाया था और आडवाणी के खिलाफ एकाध बयान देने के अलावा उन्होंने पार्टी के किसी नेता के खिलाफ बयान नहीं दिया था। जसवंत की पार्टी में वापसी होगी इसका पहला संकेत नितिन गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद तब मिला था जब उन्होंने कहा था कि वह पार्टी छोड़कर गए नेताओं की वापसी के लिए पहल करेंगे। इसके बाद गडकरी ने जसवंत के बेटे मानवेन्द्र सिंह को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया, बाद में जसवंत ने भी बयान दिया कि भाजपा उनके खून में है और वह उसे अलग नहीं कर सकते। इसके बाद पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के अंतिम संस्कार में जयपुर जाते समय आडवाणी खुद अपने साथ विमान में जसवंत सिंह को ले गये तब इस बात की लगभग पुष्टि ही हो गई कि जसवंत देर सवेर पार्टी में शामिल हो जाएंगे। आखिरकार यह हुआ भी। अब इस बात के कयास लगाये जा रहे हैं कि उमा भारती और कल्याण सिंह की भी पार्टी में वापसी होगी। उमा भारती के बारे में तो बताया जा रहा है कि कोई फार्मूला तय किया जा रहा है कि जिससे साध्वी अपनी पुरानी भगवा पार्टी में शामिल होकर उसे मजबूत बनाएं।
दूसरी ओर, भाजपा भले ही अब यह दावे कर रही हो कि कमान पूरी तरह दूसरी पीढ़ी के हाथों में आ गई है, लेकिन हकीकत में ऐसा दिखता नहीं है। अब भी सभी निर्णयों पर आडवाणी हावी दिखते हैं। संघ की विचारधारा से हट कर पुस्तक लिखने वाले जसवंत की पार्टी में वापसी कराना हो या फिर हाल में संपन्न राज्यसभा चुनावों में उम्मीदवारों का चयन, सब जगह आडवाणी की खूब चली। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि कहीं दूसरी पीढ़ी मात्र रबर स्टाम्प का कार्य तो नहीं कर रही।
बहरहाल, अब देखना यह है कि पुराने धुरंधरों के सहारे भाजपा कितना आगे बढ़ पाती है। उसके सामने चुनौती है कि वह कुछ नए धुरंधर भी तैयार करे। पुरानों पर ही बार-बार दांव लगाना सही नहीं होगा। पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि कांग्रेस का सशक्त विकल्प होने के बावजूद लोग उस पर और उसके नेताओं पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। लोगों के बीच अपने प्रति भरोसा कायम करना पार्टी की प्राथमिकता होनी चाहिए।

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